ये सवाल अजीब है लेकिन मेरे कल के एक दिन के अनुभव ने बता दिया कि वाकई दिल्ली बस दूर से देखने लायक ही बची है, भेड़चाल और लीपापोती में जुटी सरकार का दिल्ली को सुधारने की जो कयावद चल रही है शायद वो ढकोसला ही लगता है एक बानगी....
अब शुरू करते है, हुआ यूँ कि मेरे मित्र की बहन जो फ़िरोजाबाद के पास पढती थी उसे अपने माँ के घर मद्रास जाना पड़ा, वो
CBSE बोर्ड की छात्रा है और उसे
TC निकलवानी थी लेकिन उन्हे मद्रास से पत्र मिला कि उन्हे counter signature के लिये दिल्ली जाना पड़ेगा, उनका तो मुमकिन न हुआ तो उन्होने मेरे दोस्त और मुझे जाने को कहा हम तो दिल्ली चले आये!
बस आगे यही से कहानी शुरू है-----सुबह करीब 10:30 बजेः हजरत निजामुद्दीन स्टेशन जो अपने आप में एक विरासत है वहाँ पर कुछ ऐसा देखने को मिला जिससे लगा कि दिल्ली सरकार को यहीं से कुछ करना चाहिये
1. प्लेटफ़ार्म पर ही हमें ऐसे बच्चे मिले जो रेलवे सफ़ाई कर्मचारियों वाली पोशाक यानी बसन्ती रंग के कोट पहने हुये थे.. कोई बड़ी बात नहीं थी इसमें लेकिन क्या दिल्ली सरकार अपने बाल-श्रम कानून का पालन करती है. क्या दिल्ली सरकार को 10-12 साल के बच्चे बाल-मजदूरी करते अपने शहर में नहीं दिखायी देते? क्या इस अंतर्र्राष्ट्रीय शहर की छवि "भागीदारी" से सुधरेगी?
2. कुछ अजीब ढंग से देखा कि कुछ बच्चे जो मैले-कुचैले कपड़े पहने हुये है उन्होने यात्रियों द्वारा फ़ेंकी गयी पानी की बोतलों को भरकर उन्हे 5-5 रूपये में बेच रहे थे. क्य उस स्टेशन पर रेलवे पुलिस यां कोई कानून है कि नहीं?
चलिये अब बात वहीं से शुरू करते है जहाँ से रूक गयी थी--- हाँ तो भाइयों निजामुद्दीन से चलकर किसी तरह ट्रैफ़िक में धक्के खा-खाकर हम प्रीत विहार स्थित
CBSE के दफ़्तर तो पहुँच गये लेकिन वहाँ पर भी हमें घोर लापरवाही क बड़ा नमूना मिला जो वाकई में दिल्ली सरकार का एक सराहनीय कदम है.
वहाँ पहुँचते ही हमे बताया गया कि हमें
ITO स्थित दफ़्तर में जाना पड़ेगा, वाकई में ये इन लोगों की महान अंधता ही कही जायेगी कि जिस पत्र मे उन्होने हमें अपना पता और फ़ोन न. दिया है क्या वो उसे बदल नहीं सकते थे? यां शायद दिल्ली सरकार को अभिभावको और बच्चों को तकलीफ़ देना अच्छा लगता है.
अब किसी तरह हम
ITO स्थित दफ़्तर पहुँचे तो वहाँ देखा कि कई अभिभावक भी परेशानी झेलकर किसी तरह यहाँ तक पहुँचे हैं, कई अभिभावक देहरादून तो कई अन्य शहरों से आये हुये थे. जो काम अपने शहर में होना चहिये था वों क्यों भला इतनी दूर करने आ सकता है! ये कुछ समझ नहीं आता जबकि हमारे बच्चे तो उन्ही के चलाये हुये और उनकी शाखाओं में पढ
रहे हैं.
इतने बड़े और आलीशान दफ़्तर में हमें केवल लकड़ी की बेंच दी गयी जो हमारे लिये अपमान का विषय था जबकि बाहर सुरक्षाकर्मियों को रोवाल्विंग चेयर प्रदान की गयीं थीं.
अंदर साहब का ए.सी. चल रहा था और साहब नदारद 1 घंटे के बाद उन्होने हमें मुहर और दस्तखत दिये तब जाकर हमारा काम पूर्ण हुआ
अब बात नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन कीः इस चित्र को ध्यान से देखिये क्या इसमें कोई गलती है?
आप 3 दिन का एडवासं टिकट लेंगें?
यां
तीन टिकट एडवांस में ?
ये राजधानी का नवनिर्मित भवन है जो इस बोर्ड पर लिखा गया है वाकई में इसे विदेशी और अंग्रेजीदां लोग इसे देखकर अपने भारत देश का कितना मजाक बनाते होंगें
अभी तो बस थोड़ा सा लिखा है बाकी और भी है विस्तार से लिखूंगा....
आपका
कमलेश मदान