मंगलवार, 9 मार्च 2010

नारी के नाम पर मचता ढोंग

आखिर वहीं हुआ जिसके लिए महिला आरक्षण विधेयक अभिशप्त है। हवा में तैरते विधेयक के टुकड़ों और अभूतपूर्व हंगामे के बीच सोमवार को महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में चर्चा के लिए पेश तो हो गया, लेकिन विधेयक विरोधी सांसदों के हुड़दंग और बागी तेवरों के चलते चर्चा और मतदान तो दूर सदन की कार्यवाही भी नहीं चल पाई। इस बीच सरकार ने विधेयक पर कार्रवाई को टालते हुए सर्वदलीय समिति के सहारे रास्ता निकालने की तैयारी की है। हालांकि विधेयक विरोधियों और सरकार के बीच शुरू हुई चर्चा की कवायद से फिलहाल इस संविधान संशोधन विधेयक का भविष्य एक बार फिर अधर में नजर आ रहा है। सरकार ने विधेयक को मंगलवार के लिए निर्धारित सदन की कार्यसूची में भी एक बार फिर सूचीबद्ध किया गया है। साथ ही प्रधानमंत्री ने सोमवार शाम विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से मुलाकात कर इस मुद्दे पर मंगलवार की सुबह सर्वदलीय बैठक बुलाई है। वहीं इस बैठक से पहले कांग्रेस आलाकमान ने अपनी रणनीति के कील-कांटे दुरुस्त करने के लिए देर शाम कोर ग्रुप नेताओं के साथ भी बैठक की। बैठक में तय किया गया कि प्रधानमंत्री सभी दलों के नेताओं से बात कर सहमति बनाने की कोशिश करेंगे। सरकार की ओर से हो रही तमाम कोशिशों ने सदन तक पहुंचे महिला आरक्षण विधेयक को एक बार फिर चर्चा की मेज पर पहुंचा दिया है। वहीं विधेयक विरोधी सपा और राजद नेताओं के रुख से साथ है कि वो किसी भी सूरत में इसे रास्ता देने को तैयार नहीं हैं। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और राजद मुखिया लालू प्रसाद यादव की अगुवाई में चल रहे विरोधी अभियान ने सोमवार को संसद के दोनों सदन नहीं चलने दिए। हंगामे के कारण लोकसभा चार बार तो राज्यसभा की कार्यवाही पांच बार स्थगित करनी पड़ी। दरअसल, इस विधेयक के शगुन सुबह से ही खराब नजर आने लगे थे। राज्यसभा में सदन की कार्यवाही शुरू हुई तो सपा सांसदों के हंगामे के कारण प्रश्नकाल भी नहीं हो सका। रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा की मांग को लेकर अड़े सपा सांसदों के विरोध को देखते हुए सदन पहले 12 बजे और फिर दो बजे तक के लिए स्थगित करना पड़ा। वहीं दो बजे जब सभापति ने विधेयक को चर्चा के लिए पेश करने के लिए पुकारा तो विरोध सदन में हंगामा अपने चरम पर पहुंच गया। बौखलाए सपा सांसद कमाल अख्तर, नंद किशोर यादव, जदयू के निलंबित सांसद एजाज अली और राजद सांसद राजनीति प्रसाद ने सदन में हंगामे की हदें पार करते हुए सभापति के आसन पर ही धावा बोल दिया। हुड़दंगी सांसदों ने न केवल विधेयक के टुकड़े कर सभापति के आसन पर फेंके बल्कि सपा सांसद कमाल अख्तर ने तो हामिद अंसारी की टेबल तक पहुंचकर कागज छीनने का भी प्रयास किया। वहीं नंदकिशोर यादव ने सभापति की टेबल पर लगा माइक ही तोड़ डाला। आलम यहां तक पहंुच गया कि हुड़दंग कर रहे सांसदों को रोकने के लिए मार्शलों को भी सदन में आना पड़ा। हालांकि सरकार ने सदन में मार्शल तैनाती का फैसला जरूर लिया हो लेकिन उसके बाद कार्यवाही नहीं चला पाई। सरकार के सियासी प्रबंधक हर स्थगन के बीच मिले वक्त में सुलह का रास्ता तलाशते नजर आए। बहरहाल, फिलहाल महिला आरक्षण विधेयक उसी मुहाने पर खड़ा है जहां की दशकों से अटका है।

अभूतपूर्व हंगामे के बीच सोमवार को महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में चर्चा के लिए पेश हुआ पर विरोधी सांसदों के हुड़दंग और बागी तेवरों के चलते चर्चा औ मतदान तो दूर सद की कार्यवाही भी नहीं चल पाई। सभापति से छीनाझपटी हुड़दंगी सांसदों ने विधेयक के टुकड़े कर सभापति पर फेंके, सपा सांसद कमाल अख्तर ने सभापति से कागज छीनने का भी प्रयास किया। नंदकिशोर यादव ने माइक तोड़ डाला।






संसद, राजनीती देश की जनता इस बेवकूफाना हरकत को अंजाम दे रही है जो शायद हिन्दुस्तान के इतिहास में कभी हुआ ही नहीं है |

किसने कहा की महिलाओं के लिए विधेयक पारित करो, क्योंकी ये वो लोग है जो वोट माँगते वक्त तो महिला सशक्तिकरण और उत्थान की बातें करते हैं और फिर जब इस पर अमल करने की बारी आयी तो गिरगिट बन जाते हैं,किस उम्मीद से आप 8 मार्च को महिला दिवस मनाते हैं, क्या इतना अपमान देखने और सुनने के लिये ?

इस देश में महिलाओं को आरक्षण तब तक नहीं मिल सकता जब तक देश के लोगों की सोच नहीं बदल जाती, क्या फ़ायदा जिस देश की राष्ट्रपति एक महिला हों और उस देश की महिलाओं ने उस देश के लिये बहुत कुछ किया हो और बदले में तिरस्कार और अपमान का घूँट पीने को मिला हो |

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

तस्वीरें जो बोलती हैं-भाग 5

लीजिये फ़िर से भारत को तस्वीरों के माध्यम से देखने-समझने के लिये प्रस्तुत है मेरी ये पोस्ट.

पहले और द्वित्तीय,तृतीय,चतुर्थ भाग के बाद आज फ़िर से उसी श्रंखला को दोहराने का मन हो चला तो मेरे द्वारा सहेजकर रखी गयीं इन तस्वीरों को पोस्ट के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ.

नोट- ये तस्वीरें भारत के जाने-माने छायाकारों की हैं जिनके शीर्षक (टाईटल) उन्हीं की देन हैं,मैं फ़िर से कहूंगा कि प्रत्येक तस्वीर से एक पोस्ट बनायी जा सकती थी लेकिन ऐसा करने से शायद उस तस्वीर की आत्मा ही मर जाती

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a humble approach to bridge economic gap : एक विनम्र दृष्टिकोण आर्थिक खाई पाटने के लिए





be aggressive : आक्रामक होना




Blue : नीलवर्ण




Bubbly Birthday : Bubbly Birthday





Buffalo Dance : भैंस नृत्य





burden of life : जिंदगी का बोझ





Chief : मुखिया





Death Dance Around : मौत नृत्य के आसपास





Filling Pattern : Filling Pattern





Ganga puja : गंगा पूजा




ghost town : भूतों का नगर




Golkonda fort : गोलकुंडा किला




har ki pairi : har ki pairi




les ombrelles : छाता




little monalisa : छोटी मोनालिसा




look, over there : देखो, वहाँ पर




perfect catch : सही पकड़





selling beads : मोती की बिक्री




serious conversation : गंभीर वार्तालाप




smoking farmer : smoking farmer






two sadhu : दो साधु




women in red : महिला, लाल रंग में

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

भारतीय सिनेमा का बदलता जायका - भाग १

अभी तक हमने भारतीय सिनेमा में रोमांस, मारधाङ और बदला लेने वाले विषय को ही अलग-अलग रूपों में चरित्रार्थ होते देखा है जो अब तक भारतीय सिनेमा को एक ही शैली में ढाले हुये थी । लेकिन करीब साल 2000 के आसपास ऐसे फ़िल्म निर्माताओं का आगमन हुआ जिन्होने भारतीय सिनेमा को एक नयी उङान भरने का मौका दिया बल्कि आज भारतीय सिनेमा को विश्व-पटल पर ला खङा किया है, आइये जानते हैं कुछ दिलचस्प और कुछ अजीब लेकिन सुखद और संपन्न भरतीय सिनेमा को :

सबसे पहले बात करते हैं मधुर भंडार की, जिन्होने हिन्दी सिनेमा को एक नया सूरज दिखाया अपनी पिक्चर "चांदनी बार" के जरिये, किसी विषय पर रिस्क लेना कोई मधुर से ही सीखे जिन्होने एक के बा एक ऐसे विषयों की कहानियां चुनी जो समाज को आइना दिखाती नजर आते हैं | 2003 में सत्ता और 2004 में आन- मैन एट वर्क के बाद अचानक मधुर फ़िर लाइम-लाइट में आये अपनी पेज-3 के जरिये इस फ़िल्म में मधुर का वही क्लास दिखा जो चांदनी बार में छूट गया था यानी कि एकदम से धमाकेदार वापसी । इस फ़िल्म नें कई आलोचको और विदेशों को प्रभावित किया क्योंकि अभी तक किसी ने भी क्रीम-कल्चर पर ऐसी करारी चोट नहीं मारी थी यां ये भी कह सक्ते हैं कि बखिया उधेङ दी थी। 2006 में कारपोरेट के जरिये उन्होने बङे-ब्ङे घरानों के बिजनेस करने के तौर-तरीकों पर वार किया तो साल 2007 में ट्रेफ़िक सिग्नल के जरिये फ़ुटपाथ पर रहने वालों के मर्मांतक जीवन को दर्शाया।

कहते हैं कि अगर कोई काम बङी शिद्दत से किया जाये तो सफ़लता कदम जरूर चूमती है साल 2008 मे फ़ैशन फ़िल्म ने जो कहानी बुनी वो
भारतीय सिनेमा का एक मील का पत्थर बन गयी मधुर ने न केवल फ़ैशन की दुनिया के आकर्षक रूप को सुनहले पर्दे पर दिखाया बल्कि इसके पीछे के पर्दे को उघाङ्कर रख दिया, एक सफ़ल मॉडल बनने के लिये क्या-क्या खोना पङता है और सफ़लता की उँचाई पर लङखङाना और फ़िर गिरना ये सब फ़ैशन में ही देखने को मिलता है जो मधुर की कमाल की सिनेमाटोग्राफ़ी का नतीजा है ।

इस साल 2009 में मधुर की जेल फ़िल्म भी एक अजीब सा स्वाद लिये हुये है । जेल ये कहानी है किसी के अपराधी बनने से लेकर जेल में रहने के तौर-तरीकों और यातनाओं के दौर के बाद कानून से खिलवाङ करने वालों की, ये कहानी है ऐसे समाज की जो अपने आप में तिरस्कॄत है।

एक इंसान अपराधी जेल में जाने के बाद ही बनता है ये इसमें दिखाया गया है कानून और न्याय व्यवस्था पर करारी चोट करती जेल अपने आप में मधुर स्वाद लिये हुये है|

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मधुर भंडारर :

1990 में फ़िल्म दूध का कर्ज के लिये तीसरे असिस्टेंट डायरेक्टर फ़िर 1992 में रात के लिये दूसरे और 1992 में ही फ़िल्म द्रोही के लिये असिस्टेंट डायरेक्टर और साल 1995 से रंगीला के लिये पहले असिस्टेंट डायरेक्टर से काम शुरू किया। साल 1999 में त्रिशक्ति से बतौर डायरेक्टर अपनी शुरूआत करने वाले मधुर ने साल 2000 के अपनी हिट चांदनी बार से फ़िर कभी पीछे मुङकर नहीं देखा , इस फ़िल्म से उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला

कुल मिलाकर भारतीय सिनेमा को जो सार्थक पहल चाहिये थी वो मधुर ने बिगुल बजाकर पूरी कर दी कि वो आम विषयों से हटकर हिन्दी सिनेमा को गति प्रदान करेंगे ।

अभी ऐसे कई और सार्थक सिनेमा की समझ वाले अभिनेता,डायरेक्टर और कहानी लेखक हैं जिनके बारे में आगे विस्तार से लिखना चालू कर रहा हूं.

अभी अलविदा चाहूंगा........

कमलेश मदान

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

पानी तेरे कितने रूप!

पानी! जीवनदायक लेकिन् कभी-कभी जीवन हरक, इस पानी ने इस साल कितने रूप दिखाये, जाने कितने लोगों को घर से बेघर कर दिया, नजाने कितनों को लील गया तो कहीं दूसरी ओर चंद पानी की बौछारें इस देश को शर्मसार करती रहीं जो पानी का ही एक रूप था.

आइये नीचे देखते हैं कि पानी ने क्या-क्या नहीं किया इस साल.......











गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

लो आ गया जमाना USB ३.० का

USB (universal serial bus) - कहने को यह छोटा सा कनेक्टर है लेकिन आज इसकी अनिवार्यता इसके नाम से ही पता चलती है कि इसने कितनी जल्दी डाटा ट्रांसफ़र और डेटा सेव और अन्य तकनीकी उत्पादों की कार्यक्षमता को बढाया है और कम्प्यूटर के क्षेत्र को कितना सुगम और तीव्र गति प्रदान की है।

सन 1996 में काम्पैक, डिजीटल, आई.बी.एम., इंटेल, नार्दर्न टेलीकाम और माइक्रोसोफ़्ट ने मिलकर इसकी संरचना की। इसके सह-खोजकर्ता और अनुसंधानकर्ता श्री अजय भट्ट हैं जिनके बारे में हम इंटेल के टी.वी विज्ञापन में भी देख चुके हैं।

सबसे पहले आयी USB 1.0 जो केवल 12 MB/Second की दर से डाटा ट्रांसफ़र की गति प्रदान करती थी ।

फ़िर सन 2001 में एच.पी एवम अल्काटेल-ल्यूसेंट ,माइक्रोसोफ़्ट, एन.ई.सी. और फ़िलिप्स ने मिलकर USB 2.0 बनायी जो USB 1.0 के मुकाबले में 480 एम.बी./सैकेंड की रफ़्तार से डाटा ट्रांसफ़र करती है जो अपने आप में अनूठा रिकार्ड रहा।

लेकिन अब 12 नवम्बर 2008 से इसके प्रमोटर ग्रुप ने फ़िर से इसे डिजाइन करके USB 3.0 को बनाया है जिसे उन्होने सुपर-स्पीड यू.एस.बी. का नाम दिया है जो वाकई में एक सुपर स्पीड होने का एहसास भी है इसकी स्पीड USB 2.0 के मुकाबले लगभग 10 गुना तेज है यानी कि 4 जी.बी/सैकेंड है ना कमाल की बात

तो अब यह मान लीजिये कि आपके यू.एस.बी डिवाइस को अपग्रेड करने का समय फ़िर से आ गया है।

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

क्या ये दिल्ली सरकार को दिखायी नहीं देता है?

ये सवाल अजीब है लेकिन मेरे कल के एक दिन के अनुभव ने बता दिया कि वाकई दिल्ली बस दूर से देखने लायक ही बची है, भेड़चाल और लीपापोती में जुटी सरकार का दिल्ली को सुधारने की जो कयावद चल रही है शायद वो ढकोसला ही लगता है एक बानगी....

अब शुरू करते है, हुआ यूँ कि मेरे मित्र की बहन जो फ़िरोजाबाद के पास पढती थी उसे अपने माँ के घर मद्रास जाना पड़ा, वो CBSE बोर्ड की छात्रा है और उसे TC निकलवानी थी लेकिन उन्हे मद्रास से पत्र मिला कि उन्हे counter signature के लिये दिल्ली जाना पड़ेगा, उनका तो मुमकिन न हुआ तो उन्होने मेरे दोस्त और मुझे जाने को कहा हम तो दिल्ली चले आये! बस आगे यही से कहानी शुरू है-----

सुबह करीब 10:30 बजेः हजरत निजामुद्दीन स्टेशन जो अपने आप में एक विरासत है वहाँ पर कुछ ऐसा देखने को मिला जिससे लगा कि दिल्ली सरकार को यहीं से कुछ करना चाहिये

1. प्लेटफ़ार्म पर ही हमें ऐसे बच्चे मिले जो रेलवे सफ़ाई कर्मचारियों वाली पोशाक यानी बसन्ती रंग के कोट पहने हुये थे.. कोई बड़ी बात नहीं थी इसमें लेकिन क्या दिल्ली सरकार अपने बाल-श्रम कानून का पालन करती है. क्या दिल्ली सरकार को 10-12 साल के बच्चे बाल-मजदूरी करते अपने शहर में नहीं दिखायी देते? क्या इस अंतर्र्राष्ट्रीय शहर की छवि "भागीदारी" से सुधरेगी?

2. कुछ अजीब ढंग से देखा कि कुछ बच्चे जो मैले-कुचैले कपड़े पहने हुये है उन्होने यात्रियों द्वारा फ़ेंकी गयी पानी की बोतलों को भरकर उन्हे 5-5 रूपये में बेच रहे थे. क्य उस स्टेशन पर रेलवे पुलिस यां कोई कानून है कि नहीं?
चलिये अब बात वहीं से शुरू करते है जहाँ से रूक गयी थी--- हाँ तो भाइयों निजामुद्दीन से चलकर किसी तरह ट्रैफ़िक में धक्के खा-खाकर हम प्रीत विहार स्थित CBSE के दफ़्तर तो पहुँच गये लेकिन वहाँ पर भी हमें घोर लापरवाही क बड़ा नमूना मिला जो वाकई में दिल्ली सरकार का एक सराहनीय कदम है.
वहाँ पहुँचते ही हमे बताया गया कि हमें ITO स्थित दफ़्तर में जाना पड़ेगा, वाकई में ये इन लोगों की महान अंधता ही कही जायेगी कि जिस पत्र मे उन्होने हमें अपना पता और फ़ोन न. दिया है क्या वो उसे बदल नहीं सकते थे? यां शायद दिल्ली सरकार को अभिभावको और बच्चों को तकलीफ़ देना अच्छा लगता है.
अब किसी तरह हम ITO स्थित दफ़्तर पहुँचे तो वहाँ देखा कि कई अभिभावक भी परेशानी झेलकर किसी तरह यहाँ तक पहुँचे हैं, कई अभिभावक देहरादून तो कई अन्य शहरों से आये हुये थे. जो काम अपने शहर में होना चहिये था वों क्यों भला इतनी दूर करने आ सकता है! ये कुछ समझ नहीं आता जबकि हमारे बच्चे तो उन्ही के चलाये हुये और उनकी शाखाओं में पढ रहे हैं.

इतने बड़े और आलीशान दफ़्तर में हमें केवल लकड़ी की बेंच दी गयी जो हमारे लिये अपमान का विषय था जबकि बाहर सुरक्षाकर्मियों को रोवाल्विंग चेयर प्रदान की गयीं थीं.

अंदर साहब का ए.सी. चल रहा था और साहब नदारद 1 घंटे के बाद उन्होने हमें मुहर और दस्तखत दिये तब जाकर हमारा काम पूर्ण हुआ

अब बात नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन कीः इस चित्र को ध्यान से देखिये क्या इसमें कोई गलती है?

आप 3 दिन का एडवासं टिकट लेंगें?
यां

तीन टिकट एडवांस में ?

ये राजधानी का नवनिर्मित भवन है जो इस बोर्ड पर लिखा गया है वाकई में इसे विदेशी और अंग्रेजीदां लोग इसे देखकर अपने भारत देश का कितना मजाक बनाते होंगें

अभी तो बस थोड़ा सा लिखा है बाकी और भी है विस्तार से लिखूंगा....

आपका
कमलेश मदान

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

क्या आप अपने हार्ड-डिस्क से वास्तव में डाटा डिलीट करते हैं

मेरे ख्याल से नहीं !
वाकई में जब हम अपने हार्ड-डिस्क से डाटा डिलीट करते हैं तो क्या वो Recycle Bin से डिलीट होकर भी रह जाता है ?

आइये जानते हैं कैसे --क्लिक करें........

गुरुवार, 21 मई 2009

Blue Card अगर लागू हो जाये तो फ़ायदा सभी को और नुकसान सिर्फ़ अमेरिका को ही होगा


अमेरिका ने जिस तरह ग्रीन कार्ड का नियम बना रखा है और जिस तरह से वो अब विदेशी कामगारों यां विदेशी हुनर को भुनाता आ रहा है , लगत है उसका वर्चस्व अब टूटने को है क्योंकि यूरोपीय संघ के देशों ने blue card को जारी करने की घोषणा कर दी है, लगता है अब भारत में रहने वाले हजारों कुशल लोगों के किस्मत के दरवाजे खुलने वाले हैं

अनुमान है कि अगले 20 वर्षों में यूरोपीय संघ को उच्च योग्यता प्राप्त दो करोड़ कुशल कर्मियों की आवश्यकता पड़ेगी. यह ज़रूरत अन्य देशों के सुयोग्य लोगों के नियंत्रित आव्रजन से ही पूरी की जा सकती है. यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देशों और यूरोपीय संसद को ऐसे विदेशियों के लिए ब्लू-कार्ड वीसा प्रणाली पर सहमत होने में वर्षों लग गये.

यूरोपीय संघ के किसी देश में रहने और काम करने की अनुमति देने वाला ब्लू-कार्ड 2011 से लागू होगा. यूरोपीय संसद की अनुशंसा के अनुसार, वह केवल ऐसे विदेशियों को मिल सकता है, जिनके पास विश्वविद्यालय स्तर की उच्चशिक्षा डिग्री हो या अपने काम में कम-से-कम पाँच वर्ष का ठोस अनुभव हो. सबसे ज़रूरी बात यह है कि यूरोपीय ब्लू-कार्ड के लिए आवेदन केवल वही लोग कर सकेंगे, जो प्रमाणित कर सकेंगे कि उन्हें नौकरी का प्रस्ताव मिल चुका है और वे जिस देश में जाना-रहना चाहते हैं, वहाँ उन्हें औसत स्थानीय वेतन से कम-से-कम 1.7 गुना अधिक वेतन मिलेगा. उदाहरण के लिए, जर्मनी में औसत वार्षिक वेतन 28 हज़ार यूरो, यानी करीब 30 लाख रूपये है.



सत्ताईस देशों के यूरोपीय संघ ने ब्लू कार्ड के प्रस्ताव को हरी झंडी दिखा दी है. इसके तहत विकासशील देशों के माहिर पेशेवरों को यूरोप में ज़्यादा काम मिल सकेगा और उन्हें वीज़ा मिलने में आसानी हो जाएगी. संघ के सदस्य देश बुलग़ारिया ने इस प्रस्ताव पर अपनी आपत्तियां वापस ले ली हैं और अब इसके लिए रास्ता साफ़ हो गया है.

यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष होसे मानुअल बारोसो ने सबसे पहले इस प्रस्ताव का ख़ाका तैयार किया. इसके तहत विकासशील देशों के माहिर पेशेवरों को यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में 4 साल तक के लिए रहने और काम करने का वीज़ा आसान शर्तों पर मिल सकेगा. वे अपने परिवारों को आसानी से यूरोपीय देश में ला सकेंगे और यहां घर और गाड़ी जैसी बुनियादी चीज़ों को हासिल करने में आसानी होगी. ज़ाहिर है, भारत में इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा सूचना तकनीक यानी आईटी और कंप्यूटर क्षेत्र के लोगों को मिलेगा.

यूरोपीय संघ के किसी देश में डेढ़ से दो साल तक काम करने के बाद ब्लू कार्ड धारक यूरोपीय संघ के दूसरे देश में जा सकेगा, वहां रोज़गार पा सकेगा और अपने परिवार को भी वहां ले जा सकेगा. हालांकि ब्लू कार्ड जारी करने का आख़िरी फ़ैसला यूरोपीय संघ के सदस्य देश ही करेंगे, यूरोपीय संघ नहीं और उन्हें इस बात को तय करने का अधिकार होगा कि वे देश में कितने प्रवासी कामगारों को प्रवेश की इजाज़त देना चाहते हैं. ब्लू कार्ड के तहत सबसे ज़्यादा मांग तकनीकी कामगारों और अस्पताल कर्मियों की होने की संभावना है.

मूल रूप से अमेरिका के ग्रीन कार्ड सिद्धांत को ध्यान में रख कर ही ब्लू कार्ड की रूप रेखा तैयार की गई है. ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे यूरोपीय देशों का मानना है कि विकासशील देशों के ज़्यादातर कुशल कामगार आसान शर्तों की वजह से अमेरिका का रुख़ कर लेते हैं, जिससे यूरोप में कमतर प्रतिभाएं ही आ पाती हैं.यूरोपीय संघ के आंकड़ों के मुताबिक़ ऑस्ट्रेलिया में लगभग 10 फ़ीसदी विदेशी कुशल पेशेवर काम करते हैं तो कनाडा में क़रीब 7.3 फ़ीसदी जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा 3.2 प्रतिशत का है और यूरोपीय संघ में महज़ 1.7 फ़ीसदी का.

लेकिन ब्लू कार्ड अमल में आने तक अमेरिकी ग्रीन कार्ड से कई मामलों में कमज़ोर साबित हो सकता है. अमेरिका में ग्रीन कार्ड धारक व्यक्ति को वहां असीमित समय तक रहने का अधिकार है, जबकि यूरोप में ब्लू कार्ड के तहत कोई ज़्यादा से ज़्यादा चार साल ही रह सकेगा. हालांकि इस दौरान वह नये ब्लू कार्ड के लिए आवेदन कर सकता है. ग्रीन कार्ड पाने वाला व्यक्ति अमेरिका के किसी भी हिस्से में काम कर सकता है, जबकि ब्लू कार्ड के तहत शुरू के डेढ़-दो साल उसे किसी एक देश में ही काम करना होगा.

ब्लू कार्ड जारी करने के नियम कड़े होंगे और इसकी सबसे मुश्किल शर्त होगी आमदनी की. यूरोपीय संघ का कोई भी देश अपनी औसत आय से कम से कम डेढ़ गुना ज़्यादा तनख़्वाह पर ही किसी को ब्लू कार्ड जारी कर सकता है. इसके लिए आवेदन करने वालों के पास कम से कम बैचलर डिग्री होनी चाहिए या पांच साल के काम का अनुभव होना चाहिए. ज़ाहिर है, ब्लू कार्ड के ज़रिए सिर्फ़ दक्ष और माहिर पेशेवरों को आकर्षित करने का प्रस्ताव है, औसत और निचले स्तर के कामगारों को नहीं.

ब्लू कार्ड का जो बुनियादी प्रस्ताव रखा गया था, वह इतना जटिल नहीं था लेकिन यूरोपीय आयोग का मानना है कि यूरोपीय संघ के सत्ताईस देशों की रज़ामंदी से ही ऐसे किसी प्रस्ताव को पास किया जाता है और सत्ताईस देशों में रज़ामंदी बनाने के लिए थोड़ा बहुत बदलाव तो करना ही पड़ता है.उम्मीद है कि नवंबर में इस प्रस्ताव पर यूरोपीय संघ के गृह मंत्रियों की बैठक में आख़िरी मुहर लग जाएगी, लेकिन सफ़र अभी लंबा है. प्रस्ताव पास होने के ढाई साल बाद ही इसे अमल में लाया जा सकेगा.