शनिवार, 5 जनवरी 2008
राजधानी में बिहारी
द्रश्य एक: सुबह के 8 बजे के लगभग का समय!
पटना से चलकर आने वाली सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रैस में बिहार से आये गरीब तबके के लोग गाड़ी में अपने खड़े होने के स्थान पर गहरी सांसे लेकर दिल्ली के आने का बेसबरी से इंतजार कर रहे हैं......
कुछ लोग बिहार से अपने लोगों से मिलने आये हैं और कुछ काम के सिलसिले में, क्योंकि इनके अपने बिहार में इनके लिये काम नहीं है ये लोग वहाँ रहकर कमा-खा भी नहीं सकते क्योंकि कुछ दबंगई और कुछ वहाँ की सरकारें उनको जीने नहीं देती.
द्रश्य दो: ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर धीरे-धीरे रूकने को है, ट्रेन के रूकते ही अचानक रेलवे पुलिस के डंडे चमकने लगे जो इन निरीह प्राणियों पर बरसने लगे. ये बेचारे क्या कहते क्योंकि अगर रोजी-रोटी कमानी है तो ये सब इसकी अच्छी शुरूआत है.रेलवे पुलिस होने का अगर जौहर इन बिहार से आये शांत और भोले-भाले लोगों पर न दिखाया तो वो रेलवे पुलिस का नहीं हो सकता।
चाहे आँखों के आगे से अपराधी निकल जाये और चाहे रेलवे स्टेशन पर बिना इनकी इजाजत के पान-सिगरेट भी बिक जायें लेकिन बिहार से आये इन लोगों को तंग न करें ऐसा नहीं हो सकता।
अब दिल्ली का विहंगम द्रश्य:रिक्शा खींचते, रेहड़ी लगाते,मजदूरी करते, काम के लिये किसी बस में बैठते और कहीं भी इन बिहारियों के लिये बड़ी ही अपमानजनक टिप्पणी सुनने को मिलती है जो लगभग पूरे भारत में एक समान ही है
"साले इन बिहारियों ने तो पूरे देश की ऐसी की तैसी कर रखी है, इनका बस चले तो ये साले पूरे देश को बिहार बना दें"
माफ़ कीजियेगा उपर लिखी गयी गाली का प्रयोग मैं नहीं करना चाहता था लेकिन सच्चाई बयां करने की विवशता के आगे ऐसा करना पड़ा.
दिल्लीवासी कहते हैं कि दिल्ली से अगर बाहरी खासकर बिहार के लोगों को हटा दिया जाये तो दिल्ली न्यूयॉर्क बन जाये!
इनके लिये बिहार शब्द घ्रणा का शब्द बन चुका है और आम बिहारी घ्रणा के पात्र.लेकिन खुद ये लोग भूल जाते हैं कि लगभग 70 प्रतिशत दिल्ली इन बाहरवालों के ही रहमों-करम पर आश्रित है, अगर ये लोग न हों तो कौन इनको जल्दी-जल्दी रिक्शे से घर,ऑफ़िस पहुँचायेगा, कौन इनका बोझा उठाकर इनके लिये काम करेगा वो भी सस्ते में!,दस लोगों के बराबर काम करके आधी मजदूरी में आपकी बिल्डिंग को कौन बनवायेगा?,अरे किसको गाली देंगें किसके ऊपर भड़ास निकालेंगें?
कौन सी फ़ैक्ट्री मैं ये लोग काम नहीं करते? क्या मिलता है बस! तिरस्कार और कुछ रहने ले लिये! माफ़ कीजियेगा छुपने के लिये दड़बा. ये शब्द ठीक है ना? आप अगर कॉलेज में हैं तो कॉलेज आपको तवज्जो नहीं देगा, किसी ऑफ़िस में हैं तो तरक्की का अवसर शायद मिल पाये और अगर तरक्की हो भी जाये तो उतना सम्मान नहीं मिल सकता.
किसी चिट्ठे पर पढा था कि बिहार का नाम सुनते ही बैंक एकाउंट,क्रेडिट-कार्ड,लोन वाले दूर भाग जाते है ये बात बिल्कुल सत्रह आने सच है, क्योंकि ये लोग चोरों,उठाईगीरों बदमाशों और धोखाधड़ी करने वालों का साथ देते हैं लेकिन इनके लियेये अपने दरवाजे बन्द रखते हैं।
अब मतलब की बात:मैं कोई बिहार से नहीं हूँ लेकिन मैं इनका दर्द समझ तो सकता हूँ, किसी ट्रेन में जब ये लोग खड़े-खड़े ही सफ़र करते हैं चाहे वि ट्रेन पूरी की पूरी खाली क्यों न हो! बड़ा विचलित करता है.
किसी भी बिहार से आये व्यक्ति के लिये सम्मान तो दूर उनको टिकट दिलवाने के नाम पर डंडे मिलते हैं,रिक्शावाले से पुलिस वाले गुंडे पैसे लूटते हैं और तो और यहाँ के निक्कमे आवारा टाइप के लोग इनको नशे की लत में डाल देते है ताकि ये लोग कमाते रहें और ये खाते.
इनको चुनाव आयोग दिल्ली का नहीं मानता लेकिन सरकार इन आश्रितों के लिये कुछ भी नहीं करती है क्योंकि बड़े-बड़े दावे और वादे करना ही इन सरकारों का मुख्य शगल रहा है|
तो क्या इन सरकारों का कोई दायित्व नहीं है जो इन लोगों और इस समाज के अभिन्न अंग को मुख्यधारा में लाये,
कब ये सरकारें एयरकंडीशन युग से बाहर निकलेंगी और कब इन ठंड से ठिठुरती इस रीढविहीन दशा से मुक्ती देंगीं?
4 Response to "राजधानी में बिहारी"
बहुत सही बात रखी है कमलेश आपने...
आपको नव वर्ष बहुत-बहुत मुबारक हो...
खैर, अब इस पर क्या कहें। इक ज़माना था जब बिहार के नाम से फरीदाबाद के कई मकान मालिक घबराते थे। वहाँ काम करते हुए मेरे संपर्क में छोटे और मझोले उद्योग के मजदूर भी आए जिनकी हालत वास्तव में वैसी ही थी जैसी आपने बयां की है। वैसे कुछ तो दोष राज्य के लोगों की मानसिकता का भी है पर पूरे राज्य के लोगों की इस तरह की branding मन दुखी करती है।
समाज को आइना दिखाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। आप अपने भावों को शब्दों रूपी माला में पिरोने में काफी इफैक्टिव हैं....लिखते रहिए।
शुभकामऩाएं।
भाई ,आपने जो लिखा है वह तो समस्या का जीवंत चित्र है पर उपाय भी हमें और आपको ही तलाशना है । साधुवाद स्वीकारिए.....
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