शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

आँखें

Posted on 10:59:00 pm by kamlesh madaan

इन आँखों ने क्या-क्या नहीं देखा. बस नहीं देखा तो एक पल भर की खुशी,इन आँखों ने क्या-क्या नहीं खोया,बस नहीं खोया तो इसमें बहने वाले आँसू, इन आँखों को दोष देने से पहले ये जमाना सारे गुनाह छुपा लेता है, इन आँखों के लिये वो अपनों को भी पराया कर देता है फ़िर भी उसे इन आँखों से कुछ हासिल नहीं होता।

इन आँखों ने गुजरात जलते देखा,अयोध्या लुटते देखा,हिन्दू-मुसलमान,सिख-ईसाइयों को अपनों के हाथों कटते-जलते देखा.

जिन हाथों ने जिसे बचपन से पाला उन्ही हाथों मे उसका खून देखा, जिस खेत में झूले झुलाये उन्ही खेत-गाँव में उसकी इज्जत तार-तार होते देखा.

इन्ही आँखों ने देश के संसद पर हमला होते देखा तो इन्हीं सांसदों ने रामसेतु पर हमला किया,

आज देश गरीब हो गया तो मुझे दिखता नहीं ये जमाना कहता है, पर जब गरीब किसान मरता है तो लोग मुझ पर कीचड् उछालते हैं.

आज हर औरत वेश्या और हर आदमी गुलाम बनने को मजबूर हो रहा है लेकिन सब फ़िर भी मुझे कहते है कि मुझे दिखता नहीं.

आज का बच्चा पहले पिस्तौल फ़िर बात करता है,आज की बच्ची पहले गर्भ-निरोधक दवा और फ़िर दोस्ती करे और फ़िर भी मुझे कहे कि मुझे दिखता नहीं है.

आस्तीन में साँप पालकर मुल्क को गद्दारों के हाथ सौंपकर कहते हो कि मुझे दिखता नहीं.



......आखिर इन आँखों को कैसे दिख सकता है जिसने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है,

क्योंकि मैं कानून की आँखें हूं।

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