शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2007
काकेश जी! और मेरे सभी चिट्ठाकार भाईयों क्या आप मेरे इस दुख में शामिल होंगें?
कल यानी 4 अक्टूबर को काकेश जी के ब्लॉग पर एक हास्य लेख आया था पढकर अच्छा भी लगा और काफ़ी मजेदार भी! ब्लॉग का नाम है (एक व्यंग्य पुस्तक का विमोचन) लेकिन कुछ ऐसा घटित हो गया था जिससे शायद हम लोग अनसुनी और अनदेखी कर दें लेकिन काकेश जी के मन में भी ये टीस सी उठी होगी कि जिस अनाम व्यक्ति जो अपने आपको अमेरिकन गॉय बोल रहा है उसने भी एक टिप्पणी की थी- वो कह रहा था कि मैं अंग्रेजी बोलता हूँ
फ़िर उसने दुबारा से उसी उत्सुकता में लिखा कि वो हमारी भाषा को पढ नहीं सकता है.
नीचे के चित्र में उन महानुभाव की टिप्पणी है
अब सवाल ये उठ रहा था कि अगर हम हिन्दी को लिखना और पढना आसान बना रहे हैं तो क्या हम इस ओर भी हैं कि पूरा विश्व हमारी भाषा समझ सके? शायद नहीं!
मेरी समझ में कोई प्रभावशाली औजार (टूल) नहीं है जो हिन्दी को विश्व के समकक्ष खडा कर सके. अगर उस अकेले व्यक्ति ने काकेश जी के चिट्ठे को पढ लिया होता तो जाहिर था कि वो हिन्दी दुनियां में खो जाता और जैसा कि होता आया है कि दूसरों की देखा-देखी में दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है. आज हम चिट्ठाकार इसी प्रवत्ति के कारण ब्लॉगजगत मे जमें हुये हैं वरना कहाँ अंग्रेजी में सर खपाने वाले रवि रतलामी जी और समीरलाल जी हिन्दी में लिखते? आलोक पुराणिक जी केवल अखबारी दुनियां में सिमट जाते और ज्ञानदत पाण्डेय जी अपनी रेलयात्रा अपनी आने वाली पीढी को सुना-सुनाकर दम लेते.
अब समय आ गया है कि हमें चिट्ठाकारी से आगे बढना चाहिये!अतः मेरा सभी भाइयों से निवेदन है कि वो मेरी और हम सबकी इस चिंता पर गौर करेंगें और हमारी हिन्दी को सर्वसुलभ और विश्वपटल पर लाने के लिये सामूहिक प्रयत्न करेंगे।
कहने को बहुत कुछ है लेकिन शब्द नहीं मिल रहे हैं बस! इतना ही लिख रहा हूँ
4 Response to "काकेश जी! और मेरे सभी चिट्ठाकार भाईयों क्या आप मेरे इस दुख में शामिल होंगें?"
चलिये कोई बात नहीं. हम तो आपके साथ हैं ही-आप तो जानते हैं इस बात को. :)
आपने चिट्ठा पढ़ा और उस पर विचार रखे आपका धन्यवाद. हमें भी अपने साथ ही मानें.
मश्ीनी अनुवाद शायद एक तरीका हो पर अभी तो मंजिल दूर लगती है।
I am an American.I cant understand your language.
एक टिप्पणी भेजें