मंगलवार, 3 जुलाई 2007
मैं इंसान हूँ!
आज जब सुबह-सुबह समाचार पत्र में एक किसान के द्वारा भूख से मर जाने की खबर पडी तो मन विचलित हो उठा,मन अनायास ही लिख्नने के लिये मचल उठा,क्योंकि मरना एक अलग बात है लेकिन एक किसान जो अन्न उपजाता है उसका भूख से मरना दुखद ही है ।मै पहली बार किसी कविता के माध्यम से अपना ह्र्दय पेश् कर रहा हूँ, आशा करता हूँ आप सराहना देंगे
मरता हूँ
जीता हूँ
उम्मीदें हैं कुछ करनें की,
कुछ बूंदें मिल जायें इस प्यासे को
कुछ अभिलाषायें है
थोडा पाने की
अपना आसमान खुद कह रहा है
उडो, लेकिन यह जान लो
मैं इंसान हूँ।
पैबन्द जोड्कर क्या मिलेगा
जब गिरेबां से लाचारी झलक रही है
हाल मेरा रोने को है
लेकिन मजबूरी छलक रही है
मेरा ईश्वर कहाँ है
कुछ धुआँ उठ रहा है,कुछ कहने को
क्या मुक्ती मिलेगी इस तन को
मेरी चिता जल रही है
आँसू नमक बनाकर खा लिया
लहू को रोटी,
इस जमीं पर क्या मिला
जब थी किस्मत खोटी।
अब कहता है दिल कुछ कर
कुछ करनें को ना मिले
तो यह याद रखना
मैं इंसान हूँ॥
3 Response to "मैं इंसान हूँ!"
अच्छी कविता है।
लेकिन तकनीकी क्षेत्र के नौजवान को तकनीकी विषयों पर भी जमकर लिखना चाहिये। कोशिश करिये। हिन्दी के हित में..
अच्छा आरंभ है. लिखते रहो, जल्दी ही आसमान छूने लगोगे.
भावनात्मक रचना है-लिखते रहें.
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