गुरुवार, 31 जनवरी 2008

दीप्ति जी क्या केवल किसी महिला से उसके विचार पूछने से ही आप शान्त हो जायेंगी?

दीप्ति जी क्या केवल किसी महिला से उसके विचार पूछने से ही आप शान्त हो जायेंगी? क्या ये चापलूसी नहीं है? क्यों आप खुद को इतना असहज महसूस कर रहीं हैं क्या राजधानी दिल्ली के बाहर कोई और आपका देश नहीं है? मैने देखा है.......

मैने देखा है अभी पिछले महीने आगरा से भोपाल जाते वक्त एक महिला किसी खास स्टेशन से चढती है और आगे जाकर पन्द्रह-बीस मिनट के बाद किसी छोटे से गाँव सरीखे स्टेशन पर चैन स्नैचिंग करती है, उसकी हिम्मत की अभी मैं मन ही मन दाद दे रहा था कि करीब ढाई-तीन सौ महिलाओं-लड़कियों का दल पलक झपकते ही रेलगाड़ी में चढ गया पूछने पर पता चला कि उस स्टेशन पर वो गाड़ी नहीं रूकती है इसलिये उन मोहतरमा ने पिछले स्टेशन से चढकर गाड़ी रूकवाना ठीक समझा. ये सब आंगनबाढी योजना के तहत काम करती हैं इनमे से अधिकांशतः महिलायें टीचर थी कई घरेलू औरते थी तो लगभग सभी अपने-अपने रोजगार चला रहीं हैं


अभी आगे... मुम्बई गया वहाँ जिन्दगी को सबसे करीब से देखा, देखा कि शाम के धुंधलके में लड़कियों की कतारें हैं, मुझे कुछ समझ नहीं आया लेकिन मेरे मित्र ने बताया कि ये लड़कियां वेश्याव्रत्ति करती हैं, मैने कारण भी पूछा तो जवाब आया जो काफ़ी अजीब सा भी लगा और वाजिब भी कि ये लड़कियां अपनी इस हालत के लिये खुद ही जिम्मेदार हैं, कोई हीरोइन बनने के चक्कर में तो कोई किसी के धोखे में मारी गयी है, किसी के घर की ये इकलौती कमाने वाली होती है तो किसी को ये कमाने का सबसे आसान तरीक लगता है. सौ-दौ सौ रूपयों के लिये अपने शरीर को बेचती ये महानगरीय लड़कियां! क्या इन के लिये छोटे शहर और काम की कमी रह गयी है.यां इनका आत्मविश्वास इतना सीमित है कि वो अपने वजूद को नहीं पहचान सकती? क्या उन्हें अब भी किसी से झूठी प्रशंसा के बोल सुनने की जरूरत महसूस होती जो इन शरीर से खेलने के लिये कही गयीं हों?

और हाँ मुद्दा आप को लग रहा है हम पुरूषों को ये समस्या लगती है, क्योंकि हमारे भी परिवार हैं, हमारे यहाँ भी आप जैसी बहन बेटियां हैं क्या हम उनको उनके पहनावे के लिये नहीं कहते? जी कहते हैं, उनकी समस्याऐं सुनते हैं उनसे शेयर करते हैं लेकिन स्त्री गुण होने के कारण वो आज भी बाहरी और घर के पुरूषों से दस गज फ़ासला रखती हैं, क्या हमने मना किया है नहीं ना! लेकिन वो जानती हैं कि उनका नैतिक कर्तव्य क्या है,स्त्री होना इस दुनियां का सबसे पवित्र धर्म है और इस धर्म को बचाये रखने में स्त्री और पुरूष दोनों का परम कर्तव्य है।
कोई स्त्री यां पुरूष खराब नहीं होती बस खराब होती है तो उसकी सोच और उसका नजरिया जिसे चाहकर भी कोई बदल नहीं सकता क्योंकि अगर कोई स्त्री सोचेगी कि हर पुरूष बलात्कारी है तो वो उसकी गलती है और अगर कोई पुरूष सोचता है कि हर स्त्री वेश्या है तो वो उसकी गलती है.

बस!

अब अगर बहस जारी रहती है तो शायद मुझे लगेगा कि अब बात को रबड़ की तरह खींचा जा रहा है.

कमलेश मदान

सोमवार, 28 जनवरी 2008

मेरे ब्लॉगर मित्रों की पोस्ट और शायद उसका अनुचित कारण ये भी हो सकता है.....

जनवरी के पहले ही दिन से काफ़ी सार्थक बहस,चिंतन,चर्चाएं और विवादास्पद लेखों ने जन्म लिया जो केवल नारी-लड़कियों और समाज में बढते खुलेपन और शर्मनाक परिस्थियों के ऊपर केंद्रित हैं......

पहले-पहल भड़ास ने नववर्ष की पूर्व संध्या पर हुयी घटना पर चिंतन और आक्रोश व्यक्त किया जो जायज है, भड़ास का ये रूप भी काफ़ी प्रशंसनीय है,उसके लेख जो क्रमवार प्रकाशित हुये वो ये हैं.......
लड़कियों यदि तुम घर से बाहर निकली तो तुम्‍हारे साथ भी यही होगा
भारत मे नारी का अपमान
हम भारतीय शायद ही कभी जिम्मेवार माता-पिता रहे हो ?

अब उसके बाद जीतू भाई ने भी प्रतिक्रिया स्वरूप एक पोस्ट लिखी जो इसी घटना के ऊपर सचित्र है,जागो मुम्बईकर, ढूंढ निकालो इन दरिंदो को

अभी ये थमा ही नहीं था कि शिवकुमार जी ने एक नया सार्थक मंच बनाकर इस बहस को आगे बढाया जो सराहनीय कदम बना,रीढ़हीन समाज निकम्मी सरकार और उससे भी निकम्मी पुलिस डिजर्व करता है नाम से प्रकाशित ब्लॉग चर्चा में काफ़ी रहा.इस बात की चर्चा टिप्पणीकार ने भी एक पोस्ट में की जो इस चर्चा को आगे बढाने के लिये काफ़ी था.ऐसे-वैसे वस्त्र पहनने या न पहनने वाली स्त्रियों लड़कियों का बलात्कार करना मैन्डेटरी है ये शब्द इस पोस्ट को घातक बनाने के लिये काफ़ी थे.

अब बारी थी एक नारी यानी ममता जी की, उन्होने बदलती मानसिकता के ऊपर जो प्रश्न किया वो काफ़ी हद तक जायज था.काफ़ी कुछ मीडिया और बदलती मानसिकता के ऊपर लिखने का साहस उन्होने इस कपडे या मानसिकता क्या खराब है ... नाम के ब्लॉग मे किया जो सराहनीय कदम था.

तेज रफ़्तार चलते हुये आम से सनसनी बनने वालों में पद्मनाभ मिश्र ने काफ़ी हो-ह्ल्ला मचाकर अपनी सार्थक उपस्थिति को दर्ज करवाया है.

मोहल्ला ये शब्द भी अपने आप में सनसनी है जो तेज प्रतिक्रिया के लिये काफ़ी मशहूर हो चुका है, उन्होने तो लगभग एक सीरीज बनाकर इस समाज की बखिया उधेड़नें में कोई कसर नहीं छोड़ी है..मादा होने से बड़ी सज़ा कुछ नहीं नाम का ब्लॉग अपने आप में काफ़ी कुछ है जो चर्चा बन गया.

मेरे हिन्दी-लेखन प्रेरणा गुरू और सम्मानीय शास्त्री.जे.सी.फ़िलिप. जी ने भी इस पर लेख लिखे जो समाज को आईना दिखाते प्रतीत हो रहे हैं,बलात्कारी एवं मनोविज्ञान नामक लेख एक अपने आप में सार्थक मंच है जो शास्त्री जी की देन है.

एक और महिला चिट्ठाकार जो अपने आप में एक स्तम्भ हैं घुघूती बासूती जी जिनके कटाक्ष के आगे कोई चिट्ठा नहीं टिक पाया है उन्होने सीधे-सीधे खुल्लमखुल्ला मोलेस्ट करेंगे हम इनको की चेतावनी दे डाली है.

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जहाँ तक मुझे दिखायी दे रहा है उसके लिये हमें थोड़ा पीछे पलटकर देखना पड़ेगा क्योंकि शायद इस पलटनें में ही सारे पन्ने खुद-ब-खुद खुल सकते हैं...........
आज से तकरीबन पन्द्रह-बीस साल पहले लोग कितने खुश मिजाज हुआ करते थे, रामायण-महाभारत जैसे सीरियल हर दिल की जान हुआ करती थी लेकिन जब 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने विदेश नीति की घोषणा की तो देश का बुरा वक्त उसी समय से चालू हो गया था.

सबसे पहले हमला बोला केबल-टी.वी.की आँधी ने जो अपने साथ बेवॉच,बोल्ड एंड द ब्यूटिफ़ुल,फ़ैशन टी.वी.,देर रात्रि वयस्क प्रोग्राम लेकर हर घर और हर ड्राइंग रूम तक पहुँच गयी, उसके बाद विदेशी उत्पाद और फ़िर लोक लुभावन नौकरियां और विदेशी बैंको द्वारा प्रदत्त कर्ज ने रही सही भारत के मध्यम वर्ग की कमर तोड़कर रख दी है.

शायद मैने मोहल्ला में ही पढा था कि लार्ड मैकाले ने कहा था कि" भारत के लोगों को जीतना हो तो उसे विदेशी संस्क्रति से रूबरू करवाओ बाकी वो खुद ब खुद हमारे अधीन हो जायेंगें"

ये शब्द स्वर्ण अक्षरों की तरह हमारे देश की किस्मत पर लिखे जा चुके हैं.अब आगे कितनी भी बहस हो यां ना हो इस देश और इसको चलाने वालों को कोई सारोकार नहीं कि कितनी बलात्कार हो रहे हैं यां कितने लोग खुद को नशे यां गर्त में डुबा रहे हैं उन्हें तो बस इकॉनॉमी ग्रोथ दिखनी चाहिये.

शनिवार, 5 जनवरी 2008

राजधानी में बिहारी

द्रश्य एक: सुबह के 8 बजे के लगभग का समय!
पटना से चलकर आने वाली सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रैस में बिहार से आये गरीब तबके के लोग गाड़ी में अपने खड़े होने के स्थान पर गहरी सांसे लेकर दिल्ली के आने का बेसबरी से इंतजार कर रहे हैं......
कुछ लोग बिहार से अपने लोगों से मिलने आये हैं और कुछ काम के सिलसिले में, क्योंकि इनके अपने बिहार में इनके लिये काम नहीं है ये लोग वहाँ रहकर कमा-खा भी नहीं सकते क्योंकि कुछ दबंगई और कुछ वहाँ की सरकारें उनको जीने नहीं देती.

द्रश्य दो: ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर धीरे-धीरे रूकने को है, ट्रेन के रूकते ही अचानक रेलवे पुलिस के डंडे चमकने लगे जो इन निरीह प्राणियों पर बरसने लगे. ये बेचारे क्या कहते क्योंकि अगर रोजी-रोटी कमानी है तो ये सब इसकी अच्छी शुरूआत है.रेलवे पुलिस होने का अगर जौहर इन बिहार से आये शांत और भोले-भाले लोगों पर न दिखाया तो वो रेलवे पुलिस का नहीं हो सकता।
चाहे आँखों के आगे से अपराधी निकल जाये और चाहे रेलवे स्टेशन पर बिना इनकी इजाजत के पान-सिगरेट भी बिक जायें लेकिन बिहार से आये इन लोगों को तंग न करें ऐसा नहीं हो सकता।

अब दिल्ली का विहंगम द्रश्य:रिक्शा खींचते, रेहड़ी लगाते,मजदूरी करते, काम के लिये किसी बस में बैठते और कहीं भी इन बिहारियों के लिये बड़ी ही अपमानजनक टिप्पणी सुनने को मिलती है जो लगभग पूरे भारत में एक समान ही है
"साले इन बिहारियों ने तो पूरे देश की ऐसी की तैसी कर रखी है, इनका बस चले तो ये साले पूरे देश को बिहार बना दें"

माफ़ कीजियेगा उपर लिखी गयी गाली का प्रयोग मैं नहीं करना चाहता था लेकिन सच्चाई बयां करने की विवशता के आगे ऐसा करना पड़ा.

दिल्लीवासी कहते हैं कि दिल्ली से अगर बाहरी खासकर बिहार के लोगों को हटा दिया जाये तो दिल्ली न्यूयॉर्क बन जाये!
इनके लिये बिहार शब्द घ्रणा का शब्द बन चुका है और आम बिहारी घ्रणा के पात्र.लेकिन खुद ये लोग भूल जाते हैं कि लगभग 70 प्रतिशत दिल्ली इन बाहरवालों के ही रहमों-करम पर आश्रित है, अगर ये लोग न हों तो कौन इनको जल्दी-जल्दी रिक्शे से घर,ऑफ़िस पहुँचायेगा, कौन इनका बोझा उठाकर इनके लिये काम करेगा वो भी सस्ते में!,दस लोगों के बराबर काम करके आधी मजदूरी में आपकी बिल्डिंग को कौन बनवायेगा?,अरे किसको गाली देंगें किसके ऊपर भड़ास निकालेंगें?
कौन सी फ़ैक्ट्री मैं ये लोग काम नहीं करते? क्या मिलता है बस! तिरस्कार और कुछ रहने ले लिये! माफ़ कीजियेगा छुपने के लिये दड़बा. ये शब्द ठीक है ना? आप अगर कॉलेज में हैं तो कॉलेज आपको तवज्जो नहीं देगा, किसी ऑफ़िस में हैं तो तरक्की का अवसर शायद मिल पाये और अगर तरक्की हो भी जाये तो उतना सम्मान नहीं मिल सकता.

किसी चिट्ठे पर पढा था कि बिहार का नाम सुनते ही बैंक एकाउंट,क्रेडिट-कार्ड,लोन वाले दूर भाग जाते है ये बात बिल्कुल सत्रह आने सच है, क्योंकि ये लोग चोरों,उठाईगीरों बदमाशों और धोखाधड़ी करने वालों का साथ देते हैं लेकिन इनके लियेये अपने दरवाजे बन्द रखते हैं।

अब मतलब की बात:मैं कोई बिहार से नहीं हूँ लेकिन मैं इनका दर्द समझ तो सकता हूँ, किसी ट्रेन में जब ये लोग खड़े-खड़े ही सफ़र करते हैं चाहे वि ट्रेन पूरी की पूरी खाली क्यों न हो! बड़ा विचलित करता है.
किसी भी बिहार से आये व्यक्ति के लिये सम्मान तो दूर उनको टिकट दिलवाने के नाम पर डंडे मिलते हैं,रिक्शावाले से पुलिस वाले गुंडे पैसे लूटते हैं और तो और यहाँ के निक्कमे आवारा टाइप के लोग इनको नशे की लत में डाल देते है ताकि ये लोग कमाते रहें और ये खाते.
इनको चुनाव आयोग दिल्ली का नहीं मानता लेकिन सरकार इन आश्रितों के लिये कुछ भी नहीं करती है क्योंकि बड़े-बड़े दावे और वादे करना ही इन सरकारों का मुख्य शगल रहा है|

तो क्या इन सरकारों का कोई दायित्व नहीं है जो इन लोगों और इस समाज के अभिन्न अंग को मुख्यधारा में लाये,
कब ये सरकारें एयरकंडीशन युग से बाहर निकलेंगी और कब इन ठंड से ठिठुरती इस रीढविहीन दशा से मुक्ती देंगीं?