शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

भारतीय सिनेमा का बदलता जायका - भाग १

अभी तक हमने भारतीय सिनेमा में रोमांस, मारधाङ और बदला लेने वाले विषय को ही अलग-अलग रूपों में चरित्रार्थ होते देखा है जो अब तक भारतीय सिनेमा को एक ही शैली में ढाले हुये थी । लेकिन करीब साल 2000 के आसपास ऐसे फ़िल्म निर्माताओं का आगमन हुआ जिन्होने भारतीय सिनेमा को एक नयी उङान भरने का मौका दिया बल्कि आज भारतीय सिनेमा को विश्व-पटल पर ला खङा किया है, आइये जानते हैं कुछ दिलचस्प और कुछ अजीब लेकिन सुखद और संपन्न भरतीय सिनेमा को :

सबसे पहले बात करते हैं मधुर भंडार की, जिन्होने हिन्दी सिनेमा को एक नया सूरज दिखाया अपनी पिक्चर "चांदनी बार" के जरिये, किसी विषय पर रिस्क लेना कोई मधुर से ही सीखे जिन्होने एक के बा एक ऐसे विषयों की कहानियां चुनी जो समाज को आइना दिखाती नजर आते हैं | 2003 में सत्ता और 2004 में आन- मैन एट वर्क के बाद अचानक मधुर फ़िर लाइम-लाइट में आये अपनी पेज-3 के जरिये इस फ़िल्म में मधुर का वही क्लास दिखा जो चांदनी बार में छूट गया था यानी कि एकदम से धमाकेदार वापसी । इस फ़िल्म नें कई आलोचको और विदेशों को प्रभावित किया क्योंकि अभी तक किसी ने भी क्रीम-कल्चर पर ऐसी करारी चोट नहीं मारी थी यां ये भी कह सक्ते हैं कि बखिया उधेङ दी थी। 2006 में कारपोरेट के जरिये उन्होने बङे-ब्ङे घरानों के बिजनेस करने के तौर-तरीकों पर वार किया तो साल 2007 में ट्रेफ़िक सिग्नल के जरिये फ़ुटपाथ पर रहने वालों के मर्मांतक जीवन को दर्शाया।

कहते हैं कि अगर कोई काम बङी शिद्दत से किया जाये तो सफ़लता कदम जरूर चूमती है साल 2008 मे फ़ैशन फ़िल्म ने जो कहानी बुनी वो
भारतीय सिनेमा का एक मील का पत्थर बन गयी मधुर ने न केवल फ़ैशन की दुनिया के आकर्षक रूप को सुनहले पर्दे पर दिखाया बल्कि इसके पीछे के पर्दे को उघाङ्कर रख दिया, एक सफ़ल मॉडल बनने के लिये क्या-क्या खोना पङता है और सफ़लता की उँचाई पर लङखङाना और फ़िर गिरना ये सब फ़ैशन में ही देखने को मिलता है जो मधुर की कमाल की सिनेमाटोग्राफ़ी का नतीजा है ।

इस साल 2009 में मधुर की जेल फ़िल्म भी एक अजीब सा स्वाद लिये हुये है । जेल ये कहानी है किसी के अपराधी बनने से लेकर जेल में रहने के तौर-तरीकों और यातनाओं के दौर के बाद कानून से खिलवाङ करने वालों की, ये कहानी है ऐसे समाज की जो अपने आप में तिरस्कॄत है।

एक इंसान अपराधी जेल में जाने के बाद ही बनता है ये इसमें दिखाया गया है कानून और न्याय व्यवस्था पर करारी चोट करती जेल अपने आप में मधुर स्वाद लिये हुये है|

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मधुर भंडारर :

1990 में फ़िल्म दूध का कर्ज के लिये तीसरे असिस्टेंट डायरेक्टर फ़िर 1992 में रात के लिये दूसरे और 1992 में ही फ़िल्म द्रोही के लिये असिस्टेंट डायरेक्टर और साल 1995 से रंगीला के लिये पहले असिस्टेंट डायरेक्टर से काम शुरू किया। साल 1999 में त्रिशक्ति से बतौर डायरेक्टर अपनी शुरूआत करने वाले मधुर ने साल 2000 के अपनी हिट चांदनी बार से फ़िर कभी पीछे मुङकर नहीं देखा , इस फ़िल्म से उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला

कुल मिलाकर भारतीय सिनेमा को जो सार्थक पहल चाहिये थी वो मधुर ने बिगुल बजाकर पूरी कर दी कि वो आम विषयों से हटकर हिन्दी सिनेमा को गति प्रदान करेंगे ।

अभी ऐसे कई और सार्थक सिनेमा की समझ वाले अभिनेता,डायरेक्टर और कहानी लेखक हैं जिनके बारे में आगे विस्तार से लिखना चालू कर रहा हूं.

अभी अलविदा चाहूंगा........

कमलेश मदान

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

पानी तेरे कितने रूप!

पानी! जीवनदायक लेकिन् कभी-कभी जीवन हरक, इस पानी ने इस साल कितने रूप दिखाये, जाने कितने लोगों को घर से बेघर कर दिया, नजाने कितनों को लील गया तो कहीं दूसरी ओर चंद पानी की बौछारें इस देश को शर्मसार करती रहीं जो पानी का ही एक रूप था.

आइये नीचे देखते हैं कि पानी ने क्या-क्या नहीं किया इस साल.......











गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

लो आ गया जमाना USB ३.० का

USB (universal serial bus) - कहने को यह छोटा सा कनेक्टर है लेकिन आज इसकी अनिवार्यता इसके नाम से ही पता चलती है कि इसने कितनी जल्दी डाटा ट्रांसफ़र और डेटा सेव और अन्य तकनीकी उत्पादों की कार्यक्षमता को बढाया है और कम्प्यूटर के क्षेत्र को कितना सुगम और तीव्र गति प्रदान की है।

सन 1996 में काम्पैक, डिजीटल, आई.बी.एम., इंटेल, नार्दर्न टेलीकाम और माइक्रोसोफ़्ट ने मिलकर इसकी संरचना की। इसके सह-खोजकर्ता और अनुसंधानकर्ता श्री अजय भट्ट हैं जिनके बारे में हम इंटेल के टी.वी विज्ञापन में भी देख चुके हैं।

सबसे पहले आयी USB 1.0 जो केवल 12 MB/Second की दर से डाटा ट्रांसफ़र की गति प्रदान करती थी ।

फ़िर सन 2001 में एच.पी एवम अल्काटेल-ल्यूसेंट ,माइक्रोसोफ़्ट, एन.ई.सी. और फ़िलिप्स ने मिलकर USB 2.0 बनायी जो USB 1.0 के मुकाबले में 480 एम.बी./सैकेंड की रफ़्तार से डाटा ट्रांसफ़र करती है जो अपने आप में अनूठा रिकार्ड रहा।

लेकिन अब 12 नवम्बर 2008 से इसके प्रमोटर ग्रुप ने फ़िर से इसे डिजाइन करके USB 3.0 को बनाया है जिसे उन्होने सुपर-स्पीड यू.एस.बी. का नाम दिया है जो वाकई में एक सुपर स्पीड होने का एहसास भी है इसकी स्पीड USB 2.0 के मुकाबले लगभग 10 गुना तेज है यानी कि 4 जी.बी/सैकेंड है ना कमाल की बात

तो अब यह मान लीजिये कि आपके यू.एस.बी डिवाइस को अपग्रेड करने का समय फ़िर से आ गया है।

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

क्या ये दिल्ली सरकार को दिखायी नहीं देता है?

ये सवाल अजीब है लेकिन मेरे कल के एक दिन के अनुभव ने बता दिया कि वाकई दिल्ली बस दूर से देखने लायक ही बची है, भेड़चाल और लीपापोती में जुटी सरकार का दिल्ली को सुधारने की जो कयावद चल रही है शायद वो ढकोसला ही लगता है एक बानगी....

अब शुरू करते है, हुआ यूँ कि मेरे मित्र की बहन जो फ़िरोजाबाद के पास पढती थी उसे अपने माँ के घर मद्रास जाना पड़ा, वो CBSE बोर्ड की छात्रा है और उसे TC निकलवानी थी लेकिन उन्हे मद्रास से पत्र मिला कि उन्हे counter signature के लिये दिल्ली जाना पड़ेगा, उनका तो मुमकिन न हुआ तो उन्होने मेरे दोस्त और मुझे जाने को कहा हम तो दिल्ली चले आये! बस आगे यही से कहानी शुरू है-----

सुबह करीब 10:30 बजेः हजरत निजामुद्दीन स्टेशन जो अपने आप में एक विरासत है वहाँ पर कुछ ऐसा देखने को मिला जिससे लगा कि दिल्ली सरकार को यहीं से कुछ करना चाहिये

1. प्लेटफ़ार्म पर ही हमें ऐसे बच्चे मिले जो रेलवे सफ़ाई कर्मचारियों वाली पोशाक यानी बसन्ती रंग के कोट पहने हुये थे.. कोई बड़ी बात नहीं थी इसमें लेकिन क्या दिल्ली सरकार अपने बाल-श्रम कानून का पालन करती है. क्या दिल्ली सरकार को 10-12 साल के बच्चे बाल-मजदूरी करते अपने शहर में नहीं दिखायी देते? क्या इस अंतर्र्राष्ट्रीय शहर की छवि "भागीदारी" से सुधरेगी?

2. कुछ अजीब ढंग से देखा कि कुछ बच्चे जो मैले-कुचैले कपड़े पहने हुये है उन्होने यात्रियों द्वारा फ़ेंकी गयी पानी की बोतलों को भरकर उन्हे 5-5 रूपये में बेच रहे थे. क्य उस स्टेशन पर रेलवे पुलिस यां कोई कानून है कि नहीं?
चलिये अब बात वहीं से शुरू करते है जहाँ से रूक गयी थी--- हाँ तो भाइयों निजामुद्दीन से चलकर किसी तरह ट्रैफ़िक में धक्के खा-खाकर हम प्रीत विहार स्थित CBSE के दफ़्तर तो पहुँच गये लेकिन वहाँ पर भी हमें घोर लापरवाही क बड़ा नमूना मिला जो वाकई में दिल्ली सरकार का एक सराहनीय कदम है.
वहाँ पहुँचते ही हमे बताया गया कि हमें ITO स्थित दफ़्तर में जाना पड़ेगा, वाकई में ये इन लोगों की महान अंधता ही कही जायेगी कि जिस पत्र मे उन्होने हमें अपना पता और फ़ोन न. दिया है क्या वो उसे बदल नहीं सकते थे? यां शायद दिल्ली सरकार को अभिभावको और बच्चों को तकलीफ़ देना अच्छा लगता है.
अब किसी तरह हम ITO स्थित दफ़्तर पहुँचे तो वहाँ देखा कि कई अभिभावक भी परेशानी झेलकर किसी तरह यहाँ तक पहुँचे हैं, कई अभिभावक देहरादून तो कई अन्य शहरों से आये हुये थे. जो काम अपने शहर में होना चहिये था वों क्यों भला इतनी दूर करने आ सकता है! ये कुछ समझ नहीं आता जबकि हमारे बच्चे तो उन्ही के चलाये हुये और उनकी शाखाओं में पढ रहे हैं.

इतने बड़े और आलीशान दफ़्तर में हमें केवल लकड़ी की बेंच दी गयी जो हमारे लिये अपमान का विषय था जबकि बाहर सुरक्षाकर्मियों को रोवाल्विंग चेयर प्रदान की गयीं थीं.

अंदर साहब का ए.सी. चल रहा था और साहब नदारद 1 घंटे के बाद उन्होने हमें मुहर और दस्तखत दिये तब जाकर हमारा काम पूर्ण हुआ

अब बात नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन कीः इस चित्र को ध्यान से देखिये क्या इसमें कोई गलती है?

आप 3 दिन का एडवासं टिकट लेंगें?
यां

तीन टिकट एडवांस में ?

ये राजधानी का नवनिर्मित भवन है जो इस बोर्ड पर लिखा गया है वाकई में इसे विदेशी और अंग्रेजीदां लोग इसे देखकर अपने भारत देश का कितना मजाक बनाते होंगें

अभी तो बस थोड़ा सा लिखा है बाकी और भी है विस्तार से लिखूंगा....

आपका
कमलेश मदान

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

क्या आप अपने हार्ड-डिस्क से वास्तव में डाटा डिलीट करते हैं

मेरे ख्याल से नहीं !
वाकई में जब हम अपने हार्ड-डिस्क से डाटा डिलीट करते हैं तो क्या वो Recycle Bin से डिलीट होकर भी रह जाता है ?

आइये जानते हैं कैसे --क्लिक करें........

गुरुवार, 21 मई 2009

Blue Card अगर लागू हो जाये तो फ़ायदा सभी को और नुकसान सिर्फ़ अमेरिका को ही होगा


अमेरिका ने जिस तरह ग्रीन कार्ड का नियम बना रखा है और जिस तरह से वो अब विदेशी कामगारों यां विदेशी हुनर को भुनाता आ रहा है , लगत है उसका वर्चस्व अब टूटने को है क्योंकि यूरोपीय संघ के देशों ने blue card को जारी करने की घोषणा कर दी है, लगता है अब भारत में रहने वाले हजारों कुशल लोगों के किस्मत के दरवाजे खुलने वाले हैं

अनुमान है कि अगले 20 वर्षों में यूरोपीय संघ को उच्च योग्यता प्राप्त दो करोड़ कुशल कर्मियों की आवश्यकता पड़ेगी. यह ज़रूरत अन्य देशों के सुयोग्य लोगों के नियंत्रित आव्रजन से ही पूरी की जा सकती है. यूरोपीय संघ के 27 सदस्य देशों और यूरोपीय संसद को ऐसे विदेशियों के लिए ब्लू-कार्ड वीसा प्रणाली पर सहमत होने में वर्षों लग गये.

यूरोपीय संघ के किसी देश में रहने और काम करने की अनुमति देने वाला ब्लू-कार्ड 2011 से लागू होगा. यूरोपीय संसद की अनुशंसा के अनुसार, वह केवल ऐसे विदेशियों को मिल सकता है, जिनके पास विश्वविद्यालय स्तर की उच्चशिक्षा डिग्री हो या अपने काम में कम-से-कम पाँच वर्ष का ठोस अनुभव हो. सबसे ज़रूरी बात यह है कि यूरोपीय ब्लू-कार्ड के लिए आवेदन केवल वही लोग कर सकेंगे, जो प्रमाणित कर सकेंगे कि उन्हें नौकरी का प्रस्ताव मिल चुका है और वे जिस देश में जाना-रहना चाहते हैं, वहाँ उन्हें औसत स्थानीय वेतन से कम-से-कम 1.7 गुना अधिक वेतन मिलेगा. उदाहरण के लिए, जर्मनी में औसत वार्षिक वेतन 28 हज़ार यूरो, यानी करीब 30 लाख रूपये है.



सत्ताईस देशों के यूरोपीय संघ ने ब्लू कार्ड के प्रस्ताव को हरी झंडी दिखा दी है. इसके तहत विकासशील देशों के माहिर पेशेवरों को यूरोप में ज़्यादा काम मिल सकेगा और उन्हें वीज़ा मिलने में आसानी हो जाएगी. संघ के सदस्य देश बुलग़ारिया ने इस प्रस्ताव पर अपनी आपत्तियां वापस ले ली हैं और अब इसके लिए रास्ता साफ़ हो गया है.

यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष होसे मानुअल बारोसो ने सबसे पहले इस प्रस्ताव का ख़ाका तैयार किया. इसके तहत विकासशील देशों के माहिर पेशेवरों को यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में 4 साल तक के लिए रहने और काम करने का वीज़ा आसान शर्तों पर मिल सकेगा. वे अपने परिवारों को आसानी से यूरोपीय देश में ला सकेंगे और यहां घर और गाड़ी जैसी बुनियादी चीज़ों को हासिल करने में आसानी होगी. ज़ाहिर है, भारत में इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा सूचना तकनीक यानी आईटी और कंप्यूटर क्षेत्र के लोगों को मिलेगा.

यूरोपीय संघ के किसी देश में डेढ़ से दो साल तक काम करने के बाद ब्लू कार्ड धारक यूरोपीय संघ के दूसरे देश में जा सकेगा, वहां रोज़गार पा सकेगा और अपने परिवार को भी वहां ले जा सकेगा. हालांकि ब्लू कार्ड जारी करने का आख़िरी फ़ैसला यूरोपीय संघ के सदस्य देश ही करेंगे, यूरोपीय संघ नहीं और उन्हें इस बात को तय करने का अधिकार होगा कि वे देश में कितने प्रवासी कामगारों को प्रवेश की इजाज़त देना चाहते हैं. ब्लू कार्ड के तहत सबसे ज़्यादा मांग तकनीकी कामगारों और अस्पताल कर्मियों की होने की संभावना है.

मूल रूप से अमेरिका के ग्रीन कार्ड सिद्धांत को ध्यान में रख कर ही ब्लू कार्ड की रूप रेखा तैयार की गई है. ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे यूरोपीय देशों का मानना है कि विकासशील देशों के ज़्यादातर कुशल कामगार आसान शर्तों की वजह से अमेरिका का रुख़ कर लेते हैं, जिससे यूरोप में कमतर प्रतिभाएं ही आ पाती हैं.यूरोपीय संघ के आंकड़ों के मुताबिक़ ऑस्ट्रेलिया में लगभग 10 फ़ीसदी विदेशी कुशल पेशेवर काम करते हैं तो कनाडा में क़रीब 7.3 फ़ीसदी जबकि अमेरिका में यह आंकड़ा 3.2 प्रतिशत का है और यूरोपीय संघ में महज़ 1.7 फ़ीसदी का.

लेकिन ब्लू कार्ड अमल में आने तक अमेरिकी ग्रीन कार्ड से कई मामलों में कमज़ोर साबित हो सकता है. अमेरिका में ग्रीन कार्ड धारक व्यक्ति को वहां असीमित समय तक रहने का अधिकार है, जबकि यूरोप में ब्लू कार्ड के तहत कोई ज़्यादा से ज़्यादा चार साल ही रह सकेगा. हालांकि इस दौरान वह नये ब्लू कार्ड के लिए आवेदन कर सकता है. ग्रीन कार्ड पाने वाला व्यक्ति अमेरिका के किसी भी हिस्से में काम कर सकता है, जबकि ब्लू कार्ड के तहत शुरू के डेढ़-दो साल उसे किसी एक देश में ही काम करना होगा.

ब्लू कार्ड जारी करने के नियम कड़े होंगे और इसकी सबसे मुश्किल शर्त होगी आमदनी की. यूरोपीय संघ का कोई भी देश अपनी औसत आय से कम से कम डेढ़ गुना ज़्यादा तनख़्वाह पर ही किसी को ब्लू कार्ड जारी कर सकता है. इसके लिए आवेदन करने वालों के पास कम से कम बैचलर डिग्री होनी चाहिए या पांच साल के काम का अनुभव होना चाहिए. ज़ाहिर है, ब्लू कार्ड के ज़रिए सिर्फ़ दक्ष और माहिर पेशेवरों को आकर्षित करने का प्रस्ताव है, औसत और निचले स्तर के कामगारों को नहीं.

ब्लू कार्ड का जो बुनियादी प्रस्ताव रखा गया था, वह इतना जटिल नहीं था लेकिन यूरोपीय आयोग का मानना है कि यूरोपीय संघ के सत्ताईस देशों की रज़ामंदी से ही ऐसे किसी प्रस्ताव को पास किया जाता है और सत्ताईस देशों में रज़ामंदी बनाने के लिए थोड़ा बहुत बदलाव तो करना ही पड़ता है.उम्मीद है कि नवंबर में इस प्रस्ताव पर यूरोपीय संघ के गृह मंत्रियों की बैठक में आख़िरी मुहर लग जाएगी, लेकिन सफ़र अभी लंबा है. प्रस्ताव पास होने के ढाई साल बाद ही इसे अमल में लाया जा सकेगा.

गुरुवार, 26 मार्च 2009

चुनाव आचार संहिता क्या है ?

अभी तक तो हम "चुनाव आचार संहिता " के बारे में सुनते ही आये हैं लेकिन क्या हमें पता है कि ये आचार संहिता क्या है और इसके क्या नियम हैं ?

आइये जानते हैं.....

आदर्श आचार संहिता के लागू होते ही मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली और मिजोरम में सरकार और प्रशासन पर कई अंकुश लग गए। सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक निर्वाचन आयोग के कर्मचारी बन गए। वे आयोग के मातहत रहकर उसके दिशा-निर्देश पर काम करेंगे।

मुख्यमंत्री या मंत्री अब न तो कोई घोषणा कर सकेंगे, न शिलान्यास, लोकार्पण या भूमिपूजन। सरकारी खर्च से ऐसा आयोजन नहीं होगा, जिससे किसी भी दल विशेष को लाभ पहुँचता हो। राजनीतिक दलों के आचरण और कार्यकलाप पर नजर रखने के लिए चुनाव आयोग पर्यवेक्षक होंगे ही। आचार संहिता के लागू होने पर क्या हो सकता है और क्या नहीं, इसके दिलचस्प पहलू एक नजर में।

सामान्य

* कोई दल ऐसा काम न करे, जिससे जातियों और धार्मिक या भाषाई समुदायों के बीच मतभेद बढ़े या घृणा फैले।
* राजनीतिक दलों की आलोचना कार्यक्रम व नीतियों तक सीमित हो, न ही व्यक्तिगत।
* धार्मिक स्थानों का उपयोग चुनाव प्रचार के मंच के रूप में नहीं किया जाना चाहिए।
* मत पाने के लिए भ्रष्ट आचरण का उपयोग न करें। जैसे-रिश्वत देना, मतदाताओं को परेशान करना आदि।
* किसी की अनुमति के बिना उसकी दीवार, अहाते या भूमि का उपयोग न करें।
* किसी दल की सभा या जुलूस में बाधा न डालें।
* राजनीतिक दल ऐसी कोई भी अपील जारी नहीं करेंगे, जिससे किसी की धार्मिक या जातीय भावनाएँ आहत होती हों।
राजनीतिक सभा
* सभा के स्थान व समय की पूर्व सूचना पुलिस अधिकारियों को दी जाए।
* दल या अभ्यर्थी पहले ही सुनिश्चित कर लें कि जो स्थान उन्होंने चुना है, वहॉँ निषेधाज्ञा तो लागू नहीं है।
* सभा स्थल में लाउडस्पीकर के उपयोग की अनुमति पहले प्राप्त करें।
* सभा के आयोजक विघ्न डालने वालों से निपटने के लिए पुलिस की सहायता करें।
जुलूस
* जुलूस का समय, शुरू होने का स्थान, मार्ग और समाप्ति का समय तय कर सूचना पुलिस को दें।
* जुलूस का इंतजाम ऐसा हो, जिससे यातायात प्रभावित न हो।
* राजनीतिक दलों का एक ही दिन, एक ही रास्ते से जुलूस निकालने का प्रस्ताव हो तो समय को लेकर पहले बात कर लें।
* जुलूस सड़क के दायीं ओर से निकाला जाए।
* जुलूस में ऐसी चीजों का प्रयोग न करें, जिनका दुरुपयोग उत्तेजना के क्षणों में हो सके।
मतदान के दिन
* अधिकृत कार्यकर्ताओं को बिल्ले या पहचान पत्र दें।
* मतदाताओं को दी जाने वाली पर्ची सादे कागज पर हो और उसमें प्रतीक चिह्न, अभ्यर्थी या दल का नाम न हो।
* मतदान के दिन और इसके 24 घंटे पहले किसी को शराब वितरित न की जाए।
* मतदान केन्द्र के पास लगाए जाने वाले कैम्पों में भीड़ न लगाएँ।
* कैम्प साधारण होना चाहिए।
* मतदान के दिन वाहन चलाने पर उसका परमिट प्राप्त करें।
सत्ताधारी दल
* कार्यकलापों में शिकायत का मौका न दें।
* मंत्री शासकीय दौरों के दौरान चुनाव प्रचार के कार्य न करें।
* इस काम में शासकीय मशीनरी तथा कर्मचारियों का इस्तेमाल न करें।
* सरकारी विमान और गाड़ियों का प्रयोग दल के हितों को बढ़ावा देने के लिए न हो।
* हेलीपेड पर एकाधिकार न जताएँ।
* विश्रामगृह, डाक-बंगले या सरकारी आवासों पर एकाधिकार नहीं हो।
* इन स्थानों का प्रयोग प्रचार कार्यालय के लिए नहीं होगा।
* सरकारी धन पर विज्ञापनों के जरिये उपलब्धियाँ नहीं गिनवाएँगे।
* मंत्रियों के शासकीय भ्रमण पर उस स्थिति में गार्ड लगाई जाएगी जब वे सर्किट हाउस में ठहरे हों।
* कैबिनेट की बैठक नहीं करेंगे।
* स्थानांतरण तथा पदस्थापना के प्रकरण आयोग का पूर्व अनुमोदन जरूरी।
ये नहीं करेंगे मुख्यमंत्री-मंत्री
* शासकीय दौरा (अपवाद को छोड़कर)
* विवेकाधीन निधि से अनुदान या स्वीकृति
* परियोजना या योजना की आधारशिला
* सड़क निर्माण या पीने के पानी की सुविधा उपलब्ध कराने का आश्वासन
अधिकारियों के लि
* शासकीय सेवक किसी भी अभ्यर्थी के निर्वाचन, मतदाता या गणना एजेंट नहीं बनेंगे।
* मंत्री यदि दौरे के समय निजी आवास पर ठहरते हैं तो अधिकारी बुलाने पर भी वहॉँ नहीं जाएँगे।
* चुनाव कार्य से जाने वाले मंत्रियों के साथ नहीं जाएँगे।
* जिनकी ड्यूटी लगाई गई है, उन्हें छोड़कर सभा या अन्य राजनीतिक आयोजन में शामिल नहीं होंगे।
* राजनीतिक दलों को सभा के लिए स्थान देते समय भेदभाव नहीं करेंगे।
लाउडस्पीकर के प्रयोग पर प्रतिबंध : चुनाव की घोषणा हो जाने से परिणामों की घोषणा तक सभाओं और वाहनों में लगने वाले लाउडस्पीकर के उपयोग के लिए दिशा-निर्देश तैयार किए गए हैं। इसके मुताबिक ग्रामीण क्षेत्र में सुबह 6 से रात 11 बजे तक और शहरी क्षेत्र में सुबह 6 से रात 10 बजे तक इनके उपयोग की अनुमति होगी।


साभार- वेबदुनिया डॉट कॉम

रविवार, 15 मार्च 2009

पहली बार लगा कि मैं भारतीय हूँ

जी हाँ इस वर्तमान में मुझे इसका सुखद एहसास हो ही गया कि मैं एक भारतीय हूँ,लेकिन एक बहुत ही अजीब तरीके से...


कैसे? आइये जानें!

हुआ ये कि मैं अपने मित्र के साथ एक मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर में एक हॉलीवुड यानी अंग्रेजी भाषा की फ़िल्म देखने गया.

बस हम फ़िल्म के पंद्रह मिनट पहले पहुँच गये जो कि मेरे लिये शायद पहली बार गर्व का विषय था, हुआ यूँ कि फ़िल्म के पर्दे पर आने से पहले " जन-गन-मन" का राष्ट्रीय गीत का प्रसारण शुरू हो गया और पल भर में ही सभी उपस्थित जन सावधान मुद्रा में तुरंत खड़े हो गये जो अपने आप में आश्चर्यजनक था.

फ़िल्म का वीडियो सियाचीन वाला था जो कभी पंगेबाज जी ने भी अपने ब्लॉग पर पोस्ट भी किया था, लेकिन पहली बार लगा कि हाँ ये देशभक्ति कि अविरल धारा भले ही मंद-मंद गति से चल रही है पर ये हम सब भारतीयों के मन को कहीं न कहीं भिगो देती है.

मेरा मानना है कि ऐसे प्रयोग जिसके लिये मैं विदेशी मल्टीप्लैक्स वालों को धन्यवाद देना चाहूंगा कि उन्होने कुछ पल ही सही लेकिन हमारी भारतीयता का एहसास हमें लौटा दिया.

ऐसे प्रयोग बार-बार होवें ऐसी मेरी कामना है क्योंकि भारतीय होने का एहसास हमारे जीने से ज्यादा है.

मैने नीचे उस वीडियो का यू-ट्यूब विडियो दिया है अगर आप इस वीडियो को प्ले करें तो क्रपया सावधान की मुद्रा में खड़े होकर देखें,क्योंकि राष्ट्रगान का सम्मान हमारे देश का सम्मान है.

जय हिंद!


शनिवार, 14 मार्च 2009

लोकतंत्र पर हावी एक अदना सा आई.पी.एल.

पिछले कुछ हफ़्तों से बस दो ही विषय सुनायी दे रहे हैं पहला तो चुनाव और दूसरा आई.पी.एल

अव्वल तो चुनाव के लिये ही मारामारी और काफ़ी हो-हल्ला मचा, नवीन चावला की बर्खास्तगी और नियुक्ति चर्चा का विषय बनीं लेकिन इन सबको एक कामयाब व्यापारी यां ये भी कह सकते हैं कि बाजीगर " ललित मोदी" ने अपनी आई.पी.एल. को जिस तरह हाशिये पर ला खड़ा किया है जिससे देश के राज्यों को चुनाव के परिणामों में कमीं सी लग रही है.

राज्यों को लग रहा है वोट के दिन क्रिकेट का खेल उनका आंकड़ा बिगाढ सकता है, और शायद यह भी सच हो.

अब बात मुद्दे की....क्या इस देश के लोग वोट देने से बेहतर क्रिकेट देखना ज्यादा जरूरी समझते हैं ?

क्या इस देश के लोगों व राज्यों की सरकारों को ललित मोदी जैसे कारोबारियों ने भ्रमजाल में फ़ांस लिया है कि वो इस खेल के आगे कुछ सोच ही नहीं रहे हैं ?

सुरक्षा मुद्दा जैसे कोई देश की सुरक्षा यां प्रतिष्ठा का सवाल है तो ये खेल रद्द क्यों नहीं हो जाता?

संसद यां सांसदों को नक्सलवाद,आतंकवाद,मुम्बई हमले,गरीबी नहीं नजर आ रही है?

लगता है इस देश को भी पाकिस्तान जैसे देश की तरह टालमटोल और झूठे रवैये की आदत हो चली है जिससे वो बस सिर्फ़ अपने आप को झूठी तसल्ली देता है कि हम खुश है!

सबसे बड़ी बात "मीडिया" को न जाने कौन सा सांप सूंघ गया है कि वो भी बस सच दिखाने के नाम पर सचिन और सहवाग के रिकार्ड को दिखाता रहता है,

अभी भी भुज,बिहार,निठारी,झारखंड,असम जैसे कई मुद्दे और विषय अपनी-अपनी जमीन की तलाश में हैं लेकिन इस मीडिया को खानों की लड़ाइयों,क्रिकेट चीयर-लीडर्स,सांप जैसे विषयों से फ़ुर्सत नहीं मिल रही है.

तो अब लग रहा है कि देश के भविष्य को संवारने का काम भी शायद ये क्रिकेट के व्यापारी ही करने वाले हैं, क्योंकि किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने ये तक नहीं कहा कि ये खेल देश के सबसे बड़े लोकतांत्रिक चुनाव से बड़े हो गयें है इस खेल का बहिष्कार हो ताकि देशवासियों को अपनी ताकत का एहसास हो.

जय हो! जय हो!

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

योग गुरू बाबा रामदेव ने कभी इस ओर भी ध्यान दिया है?

योग के ढोंग करके और कोला कम्पनियों को पानी पी-पीकर कोसने वाले बाबा रामदेव ने उन कम्पनियों की नाक में नकेल डाल रखी है, और अब शायद वो अपना देसी कोला का भी व्यापार चालू करने वाले हैं यानी दुकानदारी चोखी ही होगी! लेकिन....

लेकिन बाबा रामदेव यह भी जानते हैं कि जब तक पब्लिसिटी में रहना है ऐसे ही मुद्दे उछालने पड़ेंगे सो अब बात ऑस्कर की हो यां पेप्सी कोला की रामदेव बाबा को तो पब्लिसिटी ही चाहिये!

लेकिन क्या बाबा रामदेव इस बात के लिये मुहिम छेड़ सकते हैं कि एक लीटर की साफ़ पानी की बोतल जो पहले से ही मनमाने रूप से 10 रू. में बिक रही थी अब काफ़ी महीनों से 12 रू. के अनाव्श्यक रूप में बिक रही है, रेल-मंत्री लालू प्रसाद के आव्हान के बाद 1 रू में पानी तो बिकने लगा लेकिन क्या रेलवे स्टेशनों पर ही लोग प्यासे घूमते हैं और क्या ये भी गारंटी है कि वो पानी हर आदमी की पहुँच में होता है?

कहानी का सीधा सार यह है कि बाबा रामदेव को कुछ भी माया-मोह और अपनी दुकानदारी के अलावा कुछ दिखायी देता है तो वो इस समस्या पर ध्यान दें

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

क्या होली ऐसी होती है?

इन तस्वीरों में बयां दर्द आपको होली मनाने के लिये मजबूर कर रहा है? नहीं ना क्योंकि ये लोग खून की होली खेल चुके हैं अब क्या होली खेलने के लिये कुछ बचा है ?


































बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

लो अब "रवीश भाई" भी तालिबान-तालिबान गाने लगे!

कल तक एन.डी.टी.वी. के प्राइम टाइम के सुपरहीरो बनकर आये रवीश भाई जिस इंडिया टी.वी. के तालिबान के ऊबाउ कार्यक्रमों की खिल्लियां उड़ाकर यह कहते फ़िर रहे थे कि ये कार्यक्रम आपकी रातों की नींद खराब कर सकते हैं जो केवल यू-ट्यूब पर पोस्ट किये नकली आतंवादी ड्रामों से भरी पड़ी है.


दर-असल में इंडिया टी.वी. के बढते ग्राफ़ और टी.आर.पी. रेटिंग ने सभी चैनलों की नींद हराम कर रखी है जिसके बचाव में कई झुलस गये हैं यां कई हाथ सेंक रहे हैं. उसी आग की तपिश से झुंझलाये बेचारे " रवीश भाई" प्राइम टाइम पर सबको यही सलाह देते फ़िर रहे थे कि आप्को तालिबान के नाम पर बेवकूफ़ बनाया जा रहा है और आप ऐसे कार्यक्रम न हीं देखें जिससे आपका मन विचलित हो सकता है.


लेकिन भला हो देश की जनता का जिन्हें रात को अपने खाने के साथ ऐसे मसालों का तड़का खाने की आदत है, अतः रवीश भाई समझ गये कि अब उनकी दुकान नहीं चलने वाले तो उन्होने पिछले दो तीन दिनों से वही यू-ट्यूब के वीडियो दिखाना शुरू कर दिया जिनके लिये उन्होने कहा था के ये नकली और भ्रमित वीडियो हैं.


शायद रवीश भाई को समझ आ गया है जैसा देश वैसा भेष वाली रणनीति और समय के अनुसार ट्रेंड सैटर नहीं बने तो हो सकता है कि फ़िर से उन्हे प्रिंट मीडिया में वापसी करनी पड़े क्योंकि यहा वही सब करना पडता है जो जनता चाहती है न कि एडीटर यां न्यूज-रीडर

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

आज की शाम कॉलेज के कॉफ़ी-हाउस के नाम

आज सैकड़ा हो गया पोस्ट लिखते-लिखते तो सोचा कि कहाँ लिखूं तो मन में आया कि कहीं दूर न जाकर बस वहीं से शुरू करते हैं जहाँ लोग अपनी जिंदगी के सबसे यादगार दिन बिताते हैं.....
तो बस चल दिये अपनी गाड़ी को उस कॉफ़ी शॉप से दूर पार्किंग करके क्योंकि उन दिनों मेरे पास साइकिल जैसा साधन भी नहीं था और बस रिक्शा यां दोस्तों का रहमो-करम(लिफ़्ट) काम आता था.

सो चल दिये अपनी मंजिल की तरफ़! वहाँ पहुँचते ही लगा कि हम जी रहे हैं दुबारा उन दिनों को, लगा ये शाम का सन्नाटा मुझे उन दिनों का शोर सुनायी दे रहा है.
कॉलेज नहीं बदला,न ही वो कैंटीन यानी कॉफ़ी हाउस लेकिन समय बदल गया था और मेरा वर्तमान.

अपने लिए वही क्रीम-रोल और दो समोसे के साथ हाई-स्वीट विद हॉट एस्प्रेसो का ऑर्डर जब दे रहा था तो लगा कि आज उधार मांगना पड़ेगा क्योंकि अचानक मेरा हाथ मेरी जेब की तरफ़ जाने लगा था जो उन दिनों की आदतों में शुमार था(क्योंकि अक्सर उधार खाना पड़ता था लेकिन हमेशा इस कॉफ़ी वाले ने मना नहीं किया)

आज वो वहाँ नहीं थे बस एक तस्वीर में माला के पीछे थे(यानी मर चुके थे)नारायण अंकल यानी कि बिहारी दादा. काउंटर पर बैठे लड़के का परिचय मिला तो पता चला कि वो उनका बेटा है. बेटा कैसे? (बिहारी अंकल ) का कोई बेटा तो नहीं था फ़िर ये?....पता चला कि बिहारी अंकल ने जिस-जिस को बचपन से पाला था यानी कि वो कुल तीन लोग थे उन सबमे आपस में उन्होने कैंटीन का जिम्मा अपने जीते -जी दे गये थे.

खैर फ़्लैश-बैक में चलते हैं, ..............मुझे याद है वो दिन जिस दिन मैने इस कॉलेज में पहला कदम रखा था नयी उमंगों के साथ थोड़ा रैगिंग का भी डर था, मेरे पहुँचते ही कॉलेज के कुछ सीनियर्स ने मुझे घेर लिया लेकिन उनमें से दो लड़के मेरे परिचित थे इसलिये मेरी रैगिंग तो टल गयी लेकिन बदले में मुझे उनको उसी कॉफ़ी-हाउस में दावत देनी पड़ी जो उस दिन का सौ रूपये के बराबर बिल बना.

लेकिन अब मैं अपने कॉलेज का एक आजाद पंछी यानी(जूनियर को पंछी) बन गया था.
लड़कियों में मैं उपस्थिति (अटैंशन) ले चुका था और बिहारी दादा के उधार-खाते में मेरा एकाउंट बन गया था...


आगे विस्तार से बताउंगा
क्रमशः.......

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

परवेज मुशर्रफ़ के बोये बीज ने अब बबूल के रूप में पाकिस्तान की मौत का सामान तैयार कर लिया है

आज जिस पाकिस्तान पर अमेरिका समेत समस्त विश्व अपनी भौहें तिरछी कर रहा है, उसी पाकिस्तान के जनरल रहे परवेज मुशर्रफ़ ने किस तरह अपने मुल्क में आतंक और पश्चिमी देशों से मित्रता (अमेरिका) का ढोंग किया ! उसके इसी कदम से उसी के मददगार रहे अफ़गानिस्तान और मुस्लिम देश खासे खफ़ा हो चले थे.

एक तरफ़ मुशर्रफ़ देश में अमन-चैन और खुशहाली का नकली आवरण पहने विश्व को बेवकूफ़ बनाने का नाटक खेल रहे थे तो दूसरी तरफ़ गरीब,बेबस और लाचार जनता मुशर्रफ़ के तानाशाह रवैये से तंग आ चुकी थी, इसका परिणाम यह हुआ कि अफ़गानिस्तान के तालिबान अफ़सरो और पाकिस्तान के शरणागत आतंक के आकाओं ने पाकिस्तान को ही ठिकाने लगाने का मन बना लिया है
पहले बेनजीर की हत्या ,फ़िर मुशर्रफ़ की ताजपोशी छिन जाना इसी गुस्से का सबूत है जो मुशर्रफ़ ने अपने तानाशाही रवैये के कारण देश की अवाम में पैदा किया

मुखमरी,कर्ज और आतंकी शरणस्थलों को बढावा देने का काम जिस गति से परवेज मुशर्रफ़ ने किया उसी गति से आज पाकिस्तान दिन ब दिन अपने आपको गर्त में डूबा पा रहा है. आज लगभग पूरे पाकिस्तान में आत्मघाती हमलावर,आतंकी शिविर ,अशिक्षा, औरतों व लड़कियों पर जुल्म आम बात है जो एक बहुत बड़ी चिंता का विषय है जिसे रोक पाना इस समय मौजूदा प्रधानमंत्री के बस का रोग नहीं रहा.

मुम्बई पर हमला करके अगर् पाकिस्ता ने ये सोचा है कि उसे उसके पुराने मददगारों (अफ़गानिस्तान एवं मुस्लिम देशों) का समर्थन मिलेगा तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल है क्योंकि विश्व भर में मुस्लिम समुदाय पहले ही अपने खोये हुये वजूद को फ़िर से पाने के लिये संघर्षरत है तो दूसरी तरह ये देश ये भी जानते है कि भारत अब एक बहुत बड़ी ताकत बन चुका है और संपूर्ण विश्व भी इस ताकत के साथ कंधे से कंधा मिलाककर खड़ा है.

अतः अब अलग-थलग पड़े पाकिस्तान को अपने ही गिरेबां में झांककर देखना होगा कि जिस तानाशाही और दमनकारी नीतियों से उसने अपना सिर ऊँचा किया है वही नीतियां तलवार बनकर उसी सिर पर मंडरा रहीं हैं.

बुधवार, 28 जनवरी 2009

मेरा देश : गली,मोहल्ले, कॉलोनी और सोसाइटी और अब टाउनशिप की वैराइटी वाला गणतंत्र दिवस कैसे मनाया जाता है? आइये जानें

पहला सीन - एक तंग गली में कुछ बच्चे जो मैले कुचैले फ़टेहाल कपड़ों में कचरा बीन रहे हैं,कुछ सुअर साथ दे रहे हैं और कुछ कुत्ते उनकी पहचान को सार्थक बना रहे हैं.
इस गली के आखिरी छोर पर एक लड़की भीख मांगने का नाटक करते हुये अपने जिस्म के खरीददार को खोज रही है तो सामने से ही उसका नशेड़ी बाप उसे गालियाँ देते-देते नाली की कीचड़ में सरोबार होकर उसी में लोटपोट है

दूसरा सीन- मोहल्ले में आज दो औरतें रोज की तरह एक दूसरे को गालियां दे रही हैं, तो वहीं कुछ बच्चे कंचे और गिल्ली डंडे में व्यस्त हैं, अल्हड़ लड़कियाँ जानबूझकर छत पर बाल सुखाने को चली आयी हैं और उन्ही को देखने मोहल्ले के "नामी" नौजवान अपनी बाइक और किसी न किसी बहाने से इन घरों में तांक-झांक कर रहे

तीसरा सीन- शहर की पॉश कॉलोनी में आज सुबह से ही हलचल है....
कुछ पढे-लोखे बुजुर्गों ने सांस्क्रतिक कार्यक्रम आयोजित किये हैं जिसमें क्षेत्र के ही किसी छुटभैये नेता(गुंडे) को बतौर चीफ़ गैस्ट बुलाया गया है...
बच्चे जो अपनी-अपनी मम्मियों के साथ आये हैं और मन मारकर ह्रितिक-रोशन और राखी सावंत के आइटम नम्बरों पर पैर पटक-पटक कर स्टेज को तोड़े जा रहे हें

इन सबके बीच लड़कियां अपने-अपने मोबाइल फ़ोन्स पर अपने-अपने ब्वाय-फ़्रेंडस के साथ बातों में मशगूल हैं, किसी का मॉल तो किसी का पिक्चर देखने का प्रोग्राम फ़िट हो चला है

अब बारी सोसाइटी की ये सीन बिल्कुल ही डिफ़रेंट हैं इस लिये इसे कोई क्रम नहीं दे सकता-- तो सीन इस प्रकार है कि आज सोसाइटी की महिलाओं की किटी पार्टी है जिसमें आज फ़लां श्रीमती ने आयोजित किया है, कारण चाहे जो कोई भी हो आज गणतंत्र दिवस और अपने सारे पड़ोसियों को अपनी नयी ज्वैलरी और नया फ़र्नीचर जो दिखान है....
हाँ शाम को एक अनाथालय में जाकर कुछ फ़टे कपड़े दान देते हुये अपनी महिला संगठन का अखबार में महिमा-मंडन सहित चित्र छपवाना है

क्या कहा बच्चे और लड़कियां?
बच्चे तो अपने-अपने स्कूल में गये हैं मजबूरीवश लेकिन लड़कियों के लिये सोसाइटी के बाहर काले रंग के शीशे ऊपर किये हुये चमचमाती कारें इंतजार कर रही हैं,


इन सबके बीच शहर के बाहर बनी टाउनशिप में एकांत का वातावरण है इन सबमें गली-मोहल्ले-कॉलोनी-सोसाइटी से पटायी,बहलायी,फ़ुसलायी,मजबूरी मे बुलायी गयी लड़कियां अपने-अपने जोड़ीदारों के साथ गणतंत्र-दिवस को इंज्वाय कर रहे हैं,और इनके जोड़ीदार वो पति-लड़्के हैं जो अपने-अपने गली-मोहल्ले-कॉलोनी और सोसाइटियों से अपने घरवालों-पत्नियों से दूर हैं