शनिवार, 22 सितंबर 2007

ये सवाल वाकई में ध्यान देने योग्य है

Posted on 9:04:00 pm by kamlesh madaan

आज बहुत दिनों के बाद जब कुछ लिखने के लिये बैठा तो अचानक कहीं से ये लेख मेरे सामने आ गया जो एक सम्रध्द भारत की निन्दा कर रहा था,
ये लेख किसी और के द्वारा नहीं अपने प्रिय डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जी ने उठाया है जो वाकई में ध्यान देने योग्य है

प्रस्तुत है वो चन्द लाईनें जो उन्होने कहीं
"राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद पहली विदेश यात्रा पर निकले डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम एक नए सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश कर रहे हैं। सवाल है कि अटलांटिक महासागर पार करने पर भारतीयों को क्या हो जाता है कि वे बदल जाते हैं?

कलाम ने यहां भारतीय पेशेवरों, प्रौद्योगिकीविदों और उद्यमियों को संबोधित करते हुए पूछा, अटलांटिक पार करते ही लोगों को क्या हो जाता है कि वे बदल जाते हैं। वे अपना प्रोफाइल बदल लेते हैं, सपने बदल लेते हैं, अपने कामकाज के तौरतरीके बदल लेते हैं। अंत में सफल होने में बदल जाते हैं और सफलता के चैम्पियन हो जाते हैं।

कलाम ने कहा कि मैंने यह सवाल अपने अच्छे दोस्त जॉन चैंबर्स के सामने रखा, जो सिस्को सिस्टम्स के सीईओ हैं, तो जवाब मिला कि अमेरिका बेहतर प्रदर्शन करने वालों की पूजा करता है और लोग असफलता से घबराते नहीं।"


मुझे कोई भी जवाब देते नहीं बन रहा है लेकिन अमेरिका की बात सच्ची और प्रशंसनीय है कि वो योग्यता को सलाम करता है और उसे वो हर जरूरत और सुविधा मुहैया करवाता है जिसकी उसे जरूरत है और बदले में अगर राष्ट्र के निर्माण में अगर थोडी सी भागीदारी मांगता है तो क्या बुरा करता है.

इसके ठीक उलट अपने भारत में जब पढा-लिखा नौजवान रिक्शा चलाता है,यां नेतागिरी में अपना समय व्यर्थ करता है जिससे हमारे देश के राजनीतिकों को एक गुमराह हमसफ़र मिल जाता है जो उनके लिये कुछ भी कर सकता है लेकिन अपने देश के लिये कुछ नहीं.
आज हर नौजवान एक कुंठा से पीडित है कि अगर वो इस देश में रहेगा तो सिवा पांच दस हजार रूपये मासिक के अलावा क्या कमायेगा? सुख साधन भौतिक सम्पदा हमारे देश् में मानो नेताओं के लिये ही बने हैं यां बनाये गये हैं.रोजगार योजनायें जो बेरोजगार अधिक लगती हैं, क्या भला करेंगी इस पीढी का जो जानती है कि जब चीन-जापान जैसे देश में घर-घर इन्जीनियर है लेकिन भारत में यही सब सीखने के लिये लाखों रूपये फ़ीस है.
सीखनें वालों से ज्यादा सिखाने वाले मुनाफ़ाखोर हो चुके हैं, देने वाला आज देसी घी मैं तैर रहा है और लेने वाले को नहाने के लिये पानी भी नसीब नही है.जब भौतिक सुविधाओं की बात आती है तो हमारे देश और रिजर्व बैंक काफ़ी हो हल्ला करता है लेकिन जब वास्तविकता में जिसको जरूरत होती है वो बेचारा दो वक्त की रोटी भी नहीं खा पाता है क्यों?

इस क्यों को पाटने के लिये हमारी सरकार का भी फ़र्ज बनता है कि वो खुद राष्ट्र के निर्माण में आगे आये और हमारे देश की नौजवान पीढी को एक सुलझा हुआ रास्ता दे ताकि फ़िर से ये सवाल कभी पैदा ही ना हो.

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