शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

भारतीय सिनेमा का बदलता जायका - भाग १

Posted on 4:10:00 pm by kamlesh madaan

अभी तक हमने भारतीय सिनेमा में रोमांस, मारधाङ और बदला लेने वाले विषय को ही अलग-अलग रूपों में चरित्रार्थ होते देखा है जो अब तक भारतीय सिनेमा को एक ही शैली में ढाले हुये थी । लेकिन करीब साल 2000 के आसपास ऐसे फ़िल्म निर्माताओं का आगमन हुआ जिन्होने भारतीय सिनेमा को एक नयी उङान भरने का मौका दिया बल्कि आज भारतीय सिनेमा को विश्व-पटल पर ला खङा किया है, आइये जानते हैं कुछ दिलचस्प और कुछ अजीब लेकिन सुखद और संपन्न भरतीय सिनेमा को :

सबसे पहले बात करते हैं मधुर भंडार की, जिन्होने हिन्दी सिनेमा को एक नया सूरज दिखाया अपनी पिक्चर "चांदनी बार" के जरिये, किसी विषय पर रिस्क लेना कोई मधुर से ही सीखे जिन्होने एक के बा एक ऐसे विषयों की कहानियां चुनी जो समाज को आइना दिखाती नजर आते हैं | 2003 में सत्ता और 2004 में आन- मैन एट वर्क के बाद अचानक मधुर फ़िर लाइम-लाइट में आये अपनी पेज-3 के जरिये इस फ़िल्म में मधुर का वही क्लास दिखा जो चांदनी बार में छूट गया था यानी कि एकदम से धमाकेदार वापसी । इस फ़िल्म नें कई आलोचको और विदेशों को प्रभावित किया क्योंकि अभी तक किसी ने भी क्रीम-कल्चर पर ऐसी करारी चोट नहीं मारी थी यां ये भी कह सक्ते हैं कि बखिया उधेङ दी थी। 2006 में कारपोरेट के जरिये उन्होने बङे-ब्ङे घरानों के बिजनेस करने के तौर-तरीकों पर वार किया तो साल 2007 में ट्रेफ़िक सिग्नल के जरिये फ़ुटपाथ पर रहने वालों के मर्मांतक जीवन को दर्शाया।

कहते हैं कि अगर कोई काम बङी शिद्दत से किया जाये तो सफ़लता कदम जरूर चूमती है साल 2008 मे फ़ैशन फ़िल्म ने जो कहानी बुनी वो
भारतीय सिनेमा का एक मील का पत्थर बन गयी मधुर ने न केवल फ़ैशन की दुनिया के आकर्षक रूप को सुनहले पर्दे पर दिखाया बल्कि इसके पीछे के पर्दे को उघाङ्कर रख दिया, एक सफ़ल मॉडल बनने के लिये क्या-क्या खोना पङता है और सफ़लता की उँचाई पर लङखङाना और फ़िर गिरना ये सब फ़ैशन में ही देखने को मिलता है जो मधुर की कमाल की सिनेमाटोग्राफ़ी का नतीजा है ।

इस साल 2009 में मधुर की जेल फ़िल्म भी एक अजीब सा स्वाद लिये हुये है । जेल ये कहानी है किसी के अपराधी बनने से लेकर जेल में रहने के तौर-तरीकों और यातनाओं के दौर के बाद कानून से खिलवाङ करने वालों की, ये कहानी है ऐसे समाज की जो अपने आप में तिरस्कॄत है।

एक इंसान अपराधी जेल में जाने के बाद ही बनता है ये इसमें दिखाया गया है कानून और न्याय व्यवस्था पर करारी चोट करती जेल अपने आप में मधुर स्वाद लिये हुये है|

=========================================

मधुर भंडारर :

1990 में फ़िल्म दूध का कर्ज के लिये तीसरे असिस्टेंट डायरेक्टर फ़िर 1992 में रात के लिये दूसरे और 1992 में ही फ़िल्म द्रोही के लिये असिस्टेंट डायरेक्टर और साल 1995 से रंगीला के लिये पहले असिस्टेंट डायरेक्टर से काम शुरू किया। साल 1999 में त्रिशक्ति से बतौर डायरेक्टर अपनी शुरूआत करने वाले मधुर ने साल 2000 के अपनी हिट चांदनी बार से फ़िर कभी पीछे मुङकर नहीं देखा , इस फ़िल्म से उन्हे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला

कुल मिलाकर भारतीय सिनेमा को जो सार्थक पहल चाहिये थी वो मधुर ने बिगुल बजाकर पूरी कर दी कि वो आम विषयों से हटकर हिन्दी सिनेमा को गति प्रदान करेंगे ।

अभी ऐसे कई और सार्थक सिनेमा की समझ वाले अभिनेता,डायरेक्टर और कहानी लेखक हैं जिनके बारे में आगे विस्तार से लिखना चालू कर रहा हूं.

अभी अलविदा चाहूंगा........

कमलेश मदान

1 Response to "भारतीय सिनेमा का बदलता जायका - भाग १"

.
gravatar
Udan Tashtari Says....

हो कहाँ कमलेश....बहुत अर्सों बाद दिखे.