रविवार, 20 मई 2007

शबनम मौसी

Posted on 1:08:00 pm by kamlesh madaan


"हमारे नेता इस देश की राजनीति को हिजङा बनाने में कोई कसर नहीं छोङ् रहे हैं तो क्या आप किसी हिजङे को अपना नेता नहीं चुन सकते? "

पिछले दिनों जब इस छोटे लेकिन विलक्षण "बुध्दु बक्से" यानी टेलीविजन पर एक कार्यक्रम् देखा तो मेरा मन द्रवित हो उठा. एक ऐसे व्यक्तित्व् के जीवन के दर्द को समझने का एहसास ही काफ़ी नहीं! हमें उसे स्वीकार भी करना होगा.क्योंकि वो समाज का अभिशाप बन चुके "मगंलामुखी" यानी हमारी भाषा में "हिजडा" है
आज से तकरीबन पांच-छः साल पहले मध्यप्रदेश के सुहागपुर के छोटे से सम्भाग "शाहदल" से चुनाव जीतकर इस साधारण किन्तु गजब के जीवट मगंलामुखी "शबनम मौसी" ने जब राजनीति में कदम रखा तो कुछ आश्चर्य हुआ! लेकिन आज जब शाहदल की उन्नति देखकर लगता है कि शायद हमारी सोच गलत हो सकती है लेकिन अगर कोई इस सोच को ही बदल दे तो क्या आश्चर्य?
लड्खडाती राजनीति में अगर कोई बैसाखी बनकर इस देश की सेवा करे तो हमें उसे तिरस्कार् की नहीं गर्व की भावना से सम्मान देना चाहिये,बकौल शबनम मौसी "मैं कोई वेश्या,भिखारी यां रेलगाडी में तमाशा करने वाली नहीं,और ना ही किसी की दया की मोहताज् हूं.लेकिन हम भी इनसान हैं,हमें भी भगवान ने बनाया है,हमने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया,लेकिन जब लोग हमें घ्रणां की भावना से देखते हैं तो मन में एक टीस सी उठती है.भगवान से हमारा कोई कान्ट्रैक्ट नहीं है जो हम इस रूप में हैं,लेकिन अगले ही पल् उत्तेजित् किन्तु बदले हुए तेवर के साथ राजनीति पर पलटवार करते हुये कहती हैं "मैं इन नेताओं के लिये डिस्प्रिन की गोली भी हूं तो मुँह को कड्वी लगने वाली कुनैन भी हूं".
चलिये अब चलते हैं शाहदल की ओर और पूछते हैं वहां के निवासियों से. एक औटो रिक्शा चालक से जब पूछा तो उसका जवाब सुनकर मुझे खुशी हुई की एक आम इन्सान के दर्द को किस तरह शबनम मौसी ने समेटा है" किसी भी नेता ने आज तक हमारे लिये कुछ नहीं किया लेकिन शबनम मौसी ने हमारे लिये जो कुछ भी किया वो तारीफ़ के काबिल है. हमारा छोटा सा शहर और छोटा होता जा रहा था लेकिन उन्होने यहां गांवों में कई स्कूल खुलवाये,पक्की सड्कें बनवयीं,नालियां-खरंजे बनवाये.किसी भी नेता ने आज तक यह नहीं किया और ना ही इस बारे में सोचा तो क्यों न हम किसी हिजडे को अपना नेता चुनें शबनम मौसी ने आज तक किसी से कोई एक रुपया नहीं लिया बल्कि लोगों के दुख्-दर्द को अपने भीतर समेटा है.
वो गरीबों के दुख-दर्द को समझने वाली शबनम मौसी ही हैं जिनके प्रयासों के रूप में शाहदल ने देश के मानचित्र पर अपनी अमिट छाप छोडी है.
फ़िर क्यों हम उन्हें तिरस्करित् करते हैं,जो सच्चे मन से देश की सेवा करना चाहता है ? यह सवाल हमें उन नेताओं से भी करना चाहिये जिन्हे लक्जरी गाडियों और एअर-कन्डीशन युग से बाहर निकलने की फ़ुर्सत नहीं।

5 Response to "शबनम मौसी"

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vishesh Says....

अच्‍छा लिखा है आपने. लगातार लिखते रहें. हम आपको सुनने आते रहेंगे.

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परमजीत सिहँ बाली Says....

कमलेश जी,आप का एक ऎसी जीवट शख्स के बारे मे आवाज उठाना,दिल को छू गया। सचमुच हमे आज अपनी सोच इन के प्रति बदलनी होगी।इंसानियत के नाते हमे इन्हे भी उचित स्थान देना चाहिए।

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vinod dongre Says....

शबनम मौसी को लेकर एक स्टोरी पढ़ी थी बीबीसी पर.

क्या कहती हैं सचमुच की शबनम मौसी

आलोक प्रकाश पुतुल
बिलासपुर

अब जब शबनम मौसी फ़िल्म रिलीज़ होने को तैयार है तब वास्तविक जीवन की शबनम मौसी को अभी भी विश्वास नहीं होता कि कोई उन पर फ़िल्म बना सकता है.
लेकिन उन्हें लगता है कि शायद पहली बार कोई किन्नरों को मज़ाक का नहीं गंभीर बात कहने का विषय बना रहा है.

एक साधारण किन्नर से विधायक बनने वाली शबनम मौसी पर फ़िल्म बनाई है योगेश भारद्वाज ने जो इसी महीने 29 तारीख़ को प्रदर्शित हो रही है.

इस फ़िल्म में शबनम मौसी का किरदार निभाया है आशुतोष राणा ने.

ऐसा नहीं है कि यह किन्नरों को केंद्र में रखकर बनी पहली फ़िल्म है तो फिर इसकी ज़रुरत क्या थी. किन्नरों पर कल्पना लाजमी की “दरम्याँ”, महेश भट्ट की “तमन्ना” और श्रीधर रंगायन की “गुलाबी आईना” जैसी फ़िल्मों के बाद “शबनम मौसी” की ज़रुरत को लेकर शबनम मौसी का दावा है कि यह पहली ऐसी फ़िल्म है जो सच्ची कहानी पर आधारित है.

वे बताती हैं कि इस फ़िल्म के लिए निर्देशक के साथ उनकी कई बार बैठक हुई और उन्हें अपनी एक-एक बात बताई. इससे पहले किन्नरों पर बनी सभी फ़िल्मों को मौसी “आधी हक़ीकत आधा फ़साना” की श्रेणी में रखती हैं.

फ़िल्म में शबनम मौसी का किरदार निभाने वाले आशुतोश राणा को लेकर शबनम मौसी का मानना है कि आशुतोष और केवल आशुतोष ही यह किरदार कर सकते थे.

वे कहती हैं- “महमूद साहब के बाद जिस किसी ने भी किन्नरों का अभिनय किया, वो बनावटी किया. आशुतोष में इस अभिनय की संभावना थी और फ़िल्म की शूटिंग से पहले आशुतोष ने लगातार मेरे साथ रह कर मेरी एक-एक भाव भंगिमा का गंभीरता से अध्ययन किया. फ़िल्म में आशुतोष को देख कर तो लगता है कि जैसे ये मैं ही हूँ.”

शबनम मौसी कहती हैं-“मैं अब भी विश्वास नहीं कर पाती कि मुझको केंद्र में रख कर कोई फ़िल्म भी बनायी जा सकती है. पहले भी कभी-कभार हिन्दी फ़िल्मों में हास्य का पुट पैदा करने के लिए किन्नरों का इस्तेमाल होता रहा है लेकिन इस बार केवल हंसी के लिए नहीं, उनके सच को सामने रखने के लिए यह फ़िल्म सामने आ रही है.”

सच की दुनिया

लेकिन यह सब तो फ़िल्मी बाते हैं.

फ़िल्मों से इतर भी शबनम शर्मा यानी शबनम मौसी की एक दुनिया है. एक ऐसी दुनिया, जहां किन्नरों के पारम्परिक पेशे से विधानसभा तक के सफ़र के बाद का पसरा सन्नाटा है, एक अकेलापन है.

इस शताब्दी के शुरुआती दिनों में मध्यप्रदेश के सोहागपुर विधानसभा क्षेत्र से शादी-ब्याह व जन्मोत्सवों में नाच-गा और बधाई दे कर अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ करने वाली किन्नर समुदाय की शबनम मौसी ने जब विधायक के लिए अपना पर्चा दाखिल किया तो किसी को अनुमान नहीं था कि वो अपनी जमानत भी बचा पाएंगी. लेकिन वो चुनाव जीत गयीं. पूरे 18 हज़ार वोटों से.

भारतीय राजनीति और वर्षों के सामंती ताने-बाने में अकड़े और जकड़े समाज के लिए यह कोई आम घटना नहीं थी.

जिन किन्नरों को भारतीय समाज दया, उपेक्षा और इन सब से बढ़ कर घृणा का विषय मानता हो, उन्हीं में से एक किन्नर को जब लाखों लोग अपना जनप्रतिनिधि चुन लेते हों, तो इसे आम घटना कैसे माना जा सकता है?

शबनम मौसी ने जब फ़रवरी 2000 में चुनाव जीता तो जैसे भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुवात हुई. मध्य प्रदेश के ही कटनी से कमला जान और उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर से आशा देवी मेयर पद के लिए चुन ली गईं.

शबनम मौसी के विधायक व इन दोनों किन्नरों के मेयर बन जाने की घटना ने भारतीय राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुवात की.

नया रोल

पहली बार देश भर के किन्नर समुदाय ने समाज के कई ऐसे आयोजनों में अपना हस्तक्षेप किया, जिनसे अब तक उनका कोई रिश्ता नहीं था. 2001 में भोपाल में किन्नरों के लिए मिस वर्ल्ड के कार्यक्रम को इसी रुप में देखा जा सकता है.

शबनम मौसी को तो जैसे दुनिया भर में हाथों-हाथ लिया गया. विधानसभा में अपनी ख़ास अंदाज में उपस्थिति के अलावा शबनम मौसी ने राष्ट्रीय स्तर पर समाज सेवा का भी काम किया.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने तो एड्स विरोधी अभियान के विज्ञापन के लिए अकेले भारतीय के रुप में शबनम मौसी को अपना मॉडल बनाया.

फिर लोगों को भारतीय लोक कथा का वह मिथ याद आया, जिसमें कहा गया है कि युग की समाप्ति पर एक ऐसा समय आएगा, जब किन्नर शासन संभालेंगे.

शायद इसी मिथक को सच में बदलने के उद्देश्य से 2003 के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में 108 किन्नर अपनी किस्मत आजमाने मैदान में उतरे. लेकिन यह मिथक अंततः मिथक ही साबित हुआ.

इन 108 किन्नरों के साथ-साथ देश की पहली किन्नर विधायक शबनम मौसी भी बुरी तरह पराजित हो गईं. अपने विधानसभा क्षेत्र में सर्वाधिक काम करवाना और गांव-गांव में लोकप्रियता चुनाव में काम नहीं आई.

शबनम मौसी कहती हैं- “कुछ लोगों ने शराब, मुर्गा, दादागिरी और नोट से वोट लेने का काम किया. नेताओं ने लोगों को भड़काया. उनको लिंग भेद के आधार पर राजनीति का सामंती पाठ पढ़ाया और मैं चुनाव हार गई.”

शबनम मौसी ने चुनाव हारा और फिर लौट गयीं अपने पुराने पेशे में.

इन दिनों अनूपपुर में रह रहीं शबनम मौसी अपने गुरु के सलाना जलसे की तैयारी कर रही हैं, जो इत्तेफाक से 29 अप्रेल को ही है, जिस दिन उनकी फ़िल्म भी रिलीज होने वाली है. इस तैयारी में वो अकेली जुटी हुई हैं. क्या उन्हें यह अकेलापन नहीं खटकता?

शबनम मौसी लंबी सांस लेते हुए अंग्रेज़ी में कहती हैं- “अब ये दीवारे हैं और मैं हूं. हम दोनों के बीच ही बातचीत होती है. अकेलापन तो जैसे काट खाने को दौड़ता है. लेकिन किया क्या जाए!”

वे राजनीति में वापस लौटना चाहती हैं. वे पूरी परिपक्वता के साथ समझाने वाले अंदाज में कहती हैं- “अब कोई महत्वाकांक्षा बची नहीं है. बस इतना भर चाहती हूं कि समाज में सभी वर्ग के लोग किन्नरों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करें. इसीलिए फिर से सक्रिय राजनीति में उतरना चाहती हूं.”

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विनोद पाराशर Says....

शबनम मॊसी के संबंध में आपका सारगर्भित लेख पढकर लगा ही नहीं,लेखन के मामले में आपकी यह शुरुआत हॆ.लगे रहो..मुन्ना भाई.

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Gyan Dutt Pandey Says....

आपका लिखा जिज्ञासा जगाता है. बधाई.