गुरुवार, 14 जून 2007

चिंतामणि की चिंता स्वभाविक है।

Posted on 11:45:00 am by kamlesh madaan




कल बहुत दिनों के बाद चिंतामणि को देखा तो मुझसे हाल-चाल बगैर पूछे रहा नहीं गया(वो मेरे बचपन का पडोसी जो ठहरा)मैंने हँसकर पूछा कि यार चिंतामणि काफ़ी पापुलर हो गये हो,खूब नाम-दाम और टी.वी. स्टार हो गये हो तो यह सुनकर चिंतामणि रुआँसा हो उठा।


मैं एकदम आश्चर्यचकित् भाव से उसे देखने लगा और शायद थोडा अपराधबोध भी महसूस करने लगा था लेकिन चिंतामणि ने खुद ही पहल करते हुये कहा चलो कहीं चाय पीते हैं,मैंने तुरंत राहत की सांस ली और चिंतामणि को कल्लू चाय वाले के टीस्टाल-कम-पुलिस उगाही केंन्द्र में ले गया।
चाय पीते-पीते अनायास ही मेरे मुँह से निकला यार चिंतामणि तुम्हारा किराने का करोबार कैसा चल रहा है, शायद मैनें फ़िर से उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था लेकिन पुराने रिश्ते होने की वजह से वो मेरे इस कटु-बाण को सह गया और उसने जो सुनाया वो आगे विवरण इस प्रकार है।


"यार मत पूछ कि कैसा हूँ क्योंकि जिस किराने के व्यापार की तुम बात कर रहे हो वो दुकान तो कबकि बिक चुकी"मैंने कहा कब तो वो बोला 'अब सुनाता हूँ तुमको अपनी रामकहानी'


आज से करीब तीन साल पहले जब मेरा किराने का खानदानी व्यापार अच्छा भला चल रहा था तब अचानक किसी भले आदमीं ने मुझे कहा"यार क्या तुझे पैसों की जरूरत है? अगर चाहियें तो एक् दिन में पैसे मिल जायेंगे! मैने आश्चर्यचकित होकर पूछा"एक दिन में? पैसों की जरूरत तो है लेकिन इतनी जल्दी? विश्वास नहीं होता !दर-असल में अगर मुझे पैसे मिल जाते तो कुछ रूपये से मैं व्यापार बढाता और कुछ अपनी बेटी की शादी और घर के जीर्णोध्दार मे लगाता! उसने मेरे ध्यान को तोडते हुये कहा "मेरे मिलने वाले एक बहुराष्ट्रीय बैंक में हैं.वो तुम्हारी प्रापर्टी पर लोन दिलवा देंगे,करीब चार-पाँच लाख!
इतना सुनना था कि मेरे शरीर में 440 वोल्ट का करंट दौडने लगा.इसके बाद मैनें कुछ ही दिनों मे अपनी दुकान पर लोन ले किया और सारा पैसा तुरंत अपने कार्यों में लगा दिया.समय गुजरता चला गया


फ़िर एक दिन बैंक से मुझे एक बडे होटल में भोज पर आमंत्रित किया.मुझे वहाँ पर सम्मानपूर्वक भोज कराने के बाद एक बहुत बडी मीटिंग में बैठाया गया जिसमें शहर के सभी गणमान्य लोग थे. मेरा वहाँ सबसे परिचय इस् तरह कराया गया कि ये हमारे बैंक के सबसे अच्छे ग्राहक हैंउन्होने मुझे तुरंत एक आलीशान कार की चाभी देते हुये कहा कि चिंतमणि जी आप एक कार के मालिक बन चुके हैं आप से कोई जमानत भी नही ली जायेगी क्योंकि आप हमारे बैंक के सबसे अच्छे ग्राहक हैं.इसके साथ आपको एक हमारा एक क्रेडिट्-कार्ड भी दिया जा रहा है जिसमें से आप अपनी जरूरी चीजों की तीन लाख तक की खरीददारी भी कर सकते हैं.





कुछ समय तक तो ठीक चलता रहा फ़िर एक दिन जब मेरी एक किस्त कार की नहीं पहुँची तो कुछ गुंडे टाईप लोग मेरी कार की चाभी मांगने आ पहुँचे!वो बैंक के रिकवरी दल के लोग थे. उसके बाद मेरी दुकान भी बेचने की नौबत आन पडी. फ़िर मेरी पत्नी के जेवर भी चले गये.पिताजी इस सदमें को नहीं झेल सके और जल्द ही चल बसे.दिन-ब-दिन हालत बद से बदतर हो गये हैं.



इतना सुनना था कि मेरा दिल रुँआसा हो गया और मैं सोचने लगा कि आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लोकलुभावन आइडियों और उनके मकडजाल से आम आदमी शायद ही बच पाता है।पहले ये कम्पनियाँ आम आदमी को टारगेट करती हैं फ़िर उनकी मजबूरी को कैश करती हैं.इनके लिये सरकार यां आम आदमी की कोई अहमियत नहीं है,इनको तो बस अपना झोला भरना है.



जाहिर है चिंतामणि की चिंता स्वभाविक है।

1 Response to "चिंतामणि की चिंता स्वभाविक है।"

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Neelima Says....

स्वागत है आपका . काफी यथार्थपूर्ण तरीके से लिखते हैं आप .