बुधवार, 25 जुलाई 2007
कभी-कभी दर्द बयां नही होता बस! आह निकलती है
जुम्मन मियाँ आज भी अपनी दर्जी की दुकान पर फ़ीता टांगे कपडे को मशीन पर घड्-घड् करते हुये दोनों पैरों को तेजी से चला रहे थे, मेरे आने का अहसास पाकर वो जरा रूके और बोले " मियाँ बडे दिनों के बाद आना हुआ"
मैने कहा" हाँ चचा अब शहर में ही अपना घर ले लिया है,अब तो ये गाँव बेगाना सा हुआ लगता है. काफ़ी अरसा हुआ अपनी मिट्टी देखे. लेकिन चाचा आप बताओ आप् कैसे हैं?
बस मेरे इतने कहते ही उनका चेहरा सुर्ख हो गया और आँखों में नमी आ गयी. थोडा रूककर फ़िर खाँसकर गला साफ़ करते हुये बोले " बेटा आज तीन साल हो गये मेरे सलीम को गये, आज तक कोई पता नहीं चला कहाँ है वो. सभी जगह ढूंढ मारा लेकिन वो नहीं मिला, किस मनहूस घडी मे वो रूपये कमाने शहर गया था? ना कोई चिट्ठी-ना कोई पता जमीं खा गई यां आसमान निगल गया कमबख्त को !
सलीम उनका इकलौता बेटा था. गाँव का सबसे होशियार लडका जिसके आगे सब मुरीद थे. लेकिन आज से करीब तीन साल पहले वो रात को गायब हो गया और आज तक लौट कर नहीं आया.जुम्मन चाचा ने उसकी शादी के लिये कितने अरमान जोड रखे थे उसके लिये लेकिन वो सब तोड गया.
जुम्मन चचा पथरायी आंखों से टूटे हुये चश्में को संभालकर बोले " बेटा तुम तो पुलिस इंस्पेक्टर हो, क्या तुम मेरे बेटे को ढूंढ्कर नहीं ला सकते?
बस उनके इतना कहते ही मेरे खून में करंट दौड्ने लगा, मेरे तो काटो तो खून नहीं वाला हिसाब हो चला था क्योंकि एकमात्र मैं ही जानता था कि सलीम कहाँ था.
आज से करीब तीन साल पहले शहर की सीमा में फ़र्जी एनकाउंटर में जो तीन लोग मैने मारे थे उनमें सलीम भी था. मेरी तरक्की हो गयी और तमगे मेरी वर्दी की शोभा बढाने लगे लेकिन सब बेमानी था,मेरी वर्दी मेरे अपनों के खून से रंगी हुयी थी. बस एक सवाल मेरे दिल में था कि इन बूढी आँखों के सामने मेरी हिम्म्त कैसे हुयी आने की |
क्योंकि सलीम को मैनें मारा था |
4 Response to "कभी-कभी दर्द बयां नही होता बस! आह निकलती है"
आंख का पानी और इंसानियत का मर जाना.. तरक्की के लिये अपनों की लाश पर पैर रखना शायद इसे ही कह्ते हैं,,
अच्छा लिखा है आपने.. सोचने लायक..
चिंतन मे डाल गये, मित्र.
हमें आपमें एक समर्थ कहानीकार नजर आ रहा है !
अफ़सोस!
एक टिप्पणी भेजें