गुरुवार, 26 जुलाई 2007
तुरत-फ़ुरत के सब साथी
आज जब जल्दी-जल्दी में दफ़्तर के लिये निकला तो याद आया मेरा मोबाईल और पर्स छूट गया है, सो वापस जल्दी-जल्दी घर पहुँचे. घर पहुँच कर देखा तो बीवी कराह रही थी. हमने पूछा क्या हुआ तो जवाब मिला " जल्दी-जल्दी सीढियों से उतर रही थी,गिर पडी. चलो अब आये हो तो मुन्नी को स्कूल भी छोड्ते जाना!"
मुझे पहले से ही देर हो रही थी कि उपर से बिन्-बुलायी मुसीबत गले पड गयी. चलो पत्नी पीडित होने की सजा भुगतनी पडी.मुन्नी को छोड्कर जैसे ही दफ़्तर के लिये रवान हुये कि पता चला कि जल्दी-जल्दी में हम जुराब अलग-अलग पहन कर चल दिये हैं ये भी फ़जीहत। चलो किसी तरह औफ़िस पहुँचे तो याद आया कि आज शनिवार है आँफ़िस का कार्यकाल समाप्त होने को है अर्थात सिर मुढाते ही ओले पड गये तिस पर जले पर नमक ये कि बाँस का सामना हो गया. फ़ुँकारे मार रहे बाँस के आगे भीगी बिल्ली बनना पडा सो अलग.अब काटो तो खून नहीं वाला हिसाब हो चला था सारी जल्दी-जल्दी धरी रह गयी थी.
बाँस ने तीन घंटे का ओवर-टाईम करवाया वो भी बिना किसी इंटरवल के. भूख के मारे पेट में आँते कुलबुलाने लगीं लेकिन उस यमराज के दूत को रहम नहीं आया मानों सारा होमवर्क मुझे ही करना था।
किसी तरह शाम को जब छुट्टी हुई तो जल्दी-जल्दी घर की तरफ़ निकल लिये, इससे पहले हम बस-स्टाप पर पहुँचते बस हमसे पहले निकल चुकी थी. वाह रे किस्मत ! अब तो जी में आया कि किसी रेल याँ बस के नीचे जान दे दें. लेकिन मजबूर इंसान कुछ भी नहीं कर सकता सिर्फ़ अपनी दुर्दशा पर रो सकता है. सो हम पैदल ही चल दिये घर की तरफ़ क्योंकि हमारे पास इतना पैसा नहीं कि टैक्सी का भाडा दे सकें.
घर पहुँचते ही हमारी पत्नी ने जो दुखद समाचार सुनाया वो इस प्रकार है कि " आज जल्दी-जल्दी के चक्कर में खाना बनाते वक्त कुकर हाथ से छूट्कर नीचे गिर गया था,सारी सब्जी फ़ैल गयी. घर में जो रखा था वो मैने और मुन्नी ने बनाकर खा लिया अब आपको भूखे ही सोना पडेगा"
सो हम भी पानी पीकर जल्दी-जल्दी सोने का प्रयास करने लगे क्योंकि कल से फ़िर जल्दी-जल्दी सारे काम करने होंगे.
2 Response to "तुरत-फ़ुरत के सब साथी"
आपकी व्यथा पढ़कर एक मिनट move की मालिश वाला ad याद आ गया।
शहरी जीवन का अच्छा चित्रण. आपके लिखने में निखार आ रहा है. सिर्फ एक सुझाव है. अपने प्रोफाईल से यह निकाल दें कि हिन्दीसेवा में लगे हैं. हममें से कोई हिन्दी सेवा नहीं कर रहा है. यह देश की संपर्क भाषा है और इसमें काम करते हैं अपनेपने के भाव से हम देश के हर नागरिक से संपर्क बना सकते हैं.
कल को मैं गुजराती सीख लूं और गुजराती में काम करने लगूं तो मैं कोई गुजराती की सेवा नहीं करता. मुझे भाषा अच्छी लगती है और मैं उस भाषा के जरिए लोगों के संपर्क में आना चाहता हूं बस. सेवा करने का भाव मन से निकाल देना चाहिए. इससे ऐसा लगता है मानों हिन्दी कोई गयी-गुजरी भाषा है और उसमें काम करके हम भाषा पर कोई एहसान कर रहे हैं.
सुझाव है. और ये नितांत मेरे अपने विचार हैं. आप मानने के लिए कतई बाध्य नहीं है.
एक टिप्पणी भेजें