बुधवार, 18 जुलाई 2007
माँ-(मेरा एक महत्वाकांक्षी लेख)-भाग-प्रथम
काफ़ी समय से मैं इस लेख के लिये व्यथित हो रहा था कि कब मैं अपना अनुभव और एक खूबसूरत सच्चाई को किस तरह लिखूं । मैने इस लेख के लिये दिन-रात मेहनत की है,और यह सच्चाई लिखने के समय मेरे हाथ काँप रहे थे क्योंकि जिस विषय पर मैं लिख् रहा था वो एक शब्द ही नहीं वरन् अपने आँचल में पूरा संसार समेटे हुये है।
मैं अपने मन की बात छोटी-छोटी कहानियों के द्वारा प्रस्तुत कर रहा हूँ आशा है आप सभी इस छोटे को प्यार देंगे। अगर कोई बात किसी को बुरी यां अपने से जुडी लगे तो मुझे जरूर लिखे जिससे मेरा लिखा सार्थक हो जायेगा|
तपती दुपहरी में कजरी अपने पसीने की परवाह किये बिना सीमेंट-गारे के तसले को सिर पर उठाये हुये तेजी से सामने वाली बिल्डिंग की ओर बढने लगी कि अचानक उसकी दुधमुँही बच्ची (जो लगभग तीन दिन से भूखी थी) भूख से व्याकुल होकर रोने लगी,उधर ठेकेदार चिल्ला रहा था, कजरी ने आव न देखा ताव एक तमाचा बच्ची को दिया जिससे बच्ची सहमकर चुप हो गयी.....
अभी पिछले साल की ही तो बात है उसका पति कल्लू शराब पी-पीकर चल बसा बस छोड गया तो कजरी और उसके पेट में पल रही उसकी संतान.बेचारी कजरी पर मानो दुख का पहाड टूट पडा, घरवालों ने उसे निकाल दिया तब से वो सडकों पर किसी तरह से भटककर अपना और बेटी का पेट भर रही थी.
.....ठेकेदार ने कजरी को गन्दी-गन्दी गालियाँ देते हुये उसे नीचे से ऊपर तक लालची निगाहों से देखा. इस बात को कजरी ने भाँप लिया लेकिन दिहाडी की खातिर वो चुप थी जैसे-तैसे अपने फ़टे हुये आँचल से अपने आपको ढका और काम पर लग गई. शाम को जब काम खत्म हुआ तो ठेकेदार ने कजरी को दिहाडी देने से मना कर दिया और कहने लगा कि तू ठीक से काम नहीं करती है अगर काम सीखना है तो मेरे साथ चल मैं तुझे सिखाउंगा कि काम कैसे होता है? बेचारी कजरी समझ चुकी थी लेकिन भूख और औलाद के आगे विवश इंसान अंधा हो जाता है। कजरी पीछे-पीछे चल दी और लगभग दो घंटे बाद जब ठेकेदार की कोठरी के बाहर निकली तो हाथों में तो कागज के कुछ टुकडे थे लेकिन चेहरे पर एक उदासीनता थी. वो तेजी से अपनी बच्ची की तरफ़ जाने लगी क्योंकि काफ़ी दिन से बच्ची भूखी थी.
कजरी को उसके रोने की आवाज नही आ रही थी लेकिन शायद उसे लग रहा था कि वो भूख से रो-रोकर सो चुकी होगी.इसीलिये वो तेजी से उस ओर कदम बढाने लगी जहाँ बच्ची सो रही थी। पास पहुँचकर जब कजरी ने देखा कि कुछ कुत्ते उसकी बेटी के आस-पास मंडरा रहे हैं तो वो ठिठक गयी. एक पत्थर उठाकर जब कुत्तों को भगाकर देखा तो उसके हाथ से उसकी मेहनत से कमाये हुये रूपये छिटक गये क्योंकि बच्ची ने भूख से दम तोड् दिया था |
7 Response to "माँ-(मेरा एक महत्वाकांक्षी लेख)-भाग-प्रथम"
अच्छा लिखा है। मार्मिक। अगले भाग का इंतज़ार रहेगा।
मार्मिक् रचना!
अति मार्मिक.
अतिशय मार्मिक रचना.
बहुत ही मार्मिक !पर ये एक सच्चाई भी है।
सच्ची और मार्मिक रचना... इअस तरह की घटनाये आये दिनो देखने को मिल ही जाती हैं.. सही चित्रांकन किया है आपने
us thekedaar ko nanga karke beech chourahe per goli mar deni chaiye
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