बुधवार, 16 अप्रैल 2008
अविनाश बाबू ! ये तो होना ही था
आज जनसत्ता के कार्यकारी संपादक श्री ओम थानवी का जो पत्र आपने सार्वजनिक किया है आपकी व्याकुलता और हताशा उससे जाहिर हो रही है !
जाहिर है साफ़ तौर पर हर जगह आपकी मठाधीशी और आपका मॉडरेशन तो चलने से रहा! ये स्वतंत्रता यां ये कहिये कि ये जिद आप अपने ब्लॉग पर ही कर सकते हैं किसी अखबार यां किसी निजी लेखन के क्षेत्र में तो आप एसा करने से रहे क्योंकि उनको अपना अखबार भी तो चलाना है भाया!
वैसे एक बात और जब आप दूसरों के लिखे पर कैंची बेफ़िक्र होकर चला सकते हैं तो अपने लेख पर होती कटिंग के लिये इतनी चीख पुकार क्यों? वो भी तो लोग हैं जिनको आपने अपने मोहल्ले में जगह देकर उन्हे बाहर का रास्ता दिखा दिया(उनमें से मैं भी हूँ ये सच मैं भी स्वीकारता हूँ) और जब उन्होने आवाज उठाई तो मॉडरेशन का नाम लेकर अपनी सफ़ाई पेश की थी
प्रिय बन्धु,
मेरी आपको निजी सलाह है कि सर्वप्रिय बनने के लिये सैकड़ों त्याग करने पड़ते हैं ! दूसरो के कंधों पर पैर रखकर आगे निकलने से सफ़लता तो मिलती है लेकिन जब कभी वो कंधे अपनी जगह से हट जाते हैं तो औंधे मुँह गिरने का स्वाद मिलता है, जो शायद अभी-अभी मिला है
तो बंधु लोगों को जोड़ो, तोड़ो नहीं सफ़लता-प्रसिध्दि-सर्वव्यापकता अपने आप आपके पास चलकर आयेगी
आपका प्रिय
कमलेश मदान
(कुछ चमचा टाइप लोग भी अभी चीख पुकार कर रहे हैं उनसे आपको आनंद तो मिल सकता है लेकिन आत्म संतुष्टि नहीं!)
6 Response to "अविनाश बाबू ! ये तो होना ही था"
रोचक! यद्यपि सन्दर्भ नहीं मालुम। पर मामला इंफ्लेटेड ईगो का लगता है।
ज्ञान जी की रेल में
सहमति की एक बोगी
मेरी भी चस्पां कर लें.
जो भी हो, कालम अच्छा था.
संबंध तो बनते-बिगड़ते रहते हैं. इसका मतलब यह तो नहीं होता कि अच्छे काम को भी इसलिए शहीद कर दिया जाए क्योंकि मेरे संबंध अच्छे नहीं हैं.
अविनास दास से निजी शिकायत हो सकती है लेकिन जनसत्ता जमात में ब्लाग को चर्चित करने में अविनास की भूमिका है भाई, ऐसे खारिज मत करो. और आपको शायद अंदाज नहीं है कि दिल्ली में जनसत्ता जमात का क्या मतलब होता है?
मैने अपनी कोई खुन्नस नहीं उतारी है संजय भाई! लेकिन जो रवैया अविनाश बाबू दूसरों के लिये करते आ रहे हैं उसी रवैये के लिये उन्हे खुद भी तैयार रहना चाहिये था,अब नगर-नगर ढिंढोरा और मुनादी पीटने से जनसत्ता जैसे स्तंभ को क्या फ़र्क पड़ जायेगा.
बाकी आप खुद समझदार हैं
अरे मदान जी कहा गुम हो गये ना आये ना फ़ोन किया ,जब मोहल्ले मे नही दिखाई दिये तो मै समझा था कि कही वाकई बाहर गये हो , देखिये आप यहा गलत है बडे लोग जो करते है उस पर ध्यान नही दिया जाता ,बडे लोग जो कहते है उस पर ध्यान दिया जाता है ,(अगर उन्होने आपका लिखा एडिट किया या आपको बिना पूछे बाहर कर दिया तो यह उनका हक था,और अगर थानवी जी ने उनका लिखा एडिट किया तो यह उनकी बदतमीजी,आप अभी इस तरह की बाते समझने मे छोटे है :),शायद शौकत थानवी भी नही जानते कि ये उनसे भी बडे संम्पादक कई बार रह चुके है,आपको याद नही इन्होने बाबा की कविता छापने वालो को आडे हाथो लिया था :))अगर बडे आपसे कहते है कि सिगरेट पीना बुरी बात है ,तो आपको पलट कर यह नही कहना चाहिये जी आप भी तो पीते है,इस तरह की बातो से आप बडे का अपमान करते है,आशा करता हू आप आज के पाठ को समझ गये होगे बाकी किसी दिन बाबा फ़रीदी के आश्रम मे आईये ..:)
This is very nice post. Keep it up.
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